Sunday 19 February 2017

पर्यावरण संरक्षण: बेहद जरूरी

हमारे प्रधान मंत्री कई मौकों पर यह विचार रखते आये हैं कि विश्व की अनगिनत समस्याओं में दो प्रमुख समस्याएं ऐसी हैं जिनपर तत्काल कुछ नहीं किया गया तो फिर काफी देर हो जायेगी। एक है पर्यावरण संरक्षण(ग्लोबल वार्मिंग) और दूसरा है आतंकवाद!
पहले हम पर्यावरण संरक्षण पर बात कर लें-
पर्यावरण शब्द परि+आवरण के संयोग से बना है। 'परि' का आशय चारों ओर तथा 'आवरण' का आशय का  परिवेश है। दूसरे शब्दों में कहें तो पर्यावरण अर्थात वनस्पतियों, प्राणियों, और मानव जाति सहित सभी सजीवों और उनके साथ संबंधित भौतिक परिसर को पर्यावरण कहतें हैं वास्तव में पर्यावरण में वायु, जल, भूमि, पेड़-पौधे, जीव-जंतु, मानव और उसकी विविध गतिविधियों के परिणाम आदि सभी का समावेश होता हैं।
विज्ञान के क्षेत्र में असीमित प्रगति तथा नये आविष्कारों की स्पर्धा के कारण आज का मानव प्रकृति पर पूर्णतया विजय प्राप्त करना चाहता है। इस कारण प्रकृति का संतुलन बिगड़ गया है। वैज्ञानिक उपलब्धियों से मानव प्राकृतिक संतुलन को उपेक्षा की दृष्टि से देख रहा है। दूसरी ओर धरती पर जनसंख्या की निरंतर वृध्दिऔद्योगीकरण एवं शहरीकरण की तीव्र गति से जहाँ प्रकृति के हरे भरे क्षेत्रों को समाप्त किया जा रहा है वहीं हरियाली और पेड़ पौधों के उचित रख-रखाव और प्रबंधन के समुचित उपाय भी नहीं किये जा रहे।
पर्यावरण संरक्षण का समस्त प्राणियों के जीवन तथा इस धरती के समस्त प्राकृतिक परिवेश से घनिष्ठ सम्बन्ध है। आज प्रदूषण के कारण सारी पृथ्वी दूषित हो रही है और निकट भविष्य में मानव सभ्यता का अंत दिखाई दे रहा है। इस स्थिति को ध्यान में रखकर सन् 1992 में ब्राजील में विश्व के 174 देशों का पृथ्वी सम्मलेन आयोजित किया गया।
इसके पश्चात सन् 2002 में जोहान्सबर्ग में पृथ्वी सम्मलेन आयोजित कर विश्व के सभी देशों को पर्यावरण संरक्षण पर ध्यान देने के लिए अनेक उपाय सुझाए गये। 2015 के संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में भी पेरिस में आयोजित किया गया जिसमे विश्व के लगभग सभी देशों के प्रतिनिधियों सिरकत की और पर्यावरण संरक्षण पर विशेष चर्चा की। सभी देशों की भागीदारी भी सुरक्षित की गयी। वस्तुतः पर्यावरण के संरक्षण से ही धरती पर जीवन का संरक्षण हो सकता है, यह बात सभी जानते भी हैं और मानते भी हैं पर सम्मलेन के बाद लिए गए निर्णयों का कितना क्रियान्वयन हुआ इसका लेखा-जोखा का भी तो होना चाहिए।
आधुनिकता के साथ विकास जरूरी है और विकास के लिए औद्योगीकरण, शहरीकरण भी उतना ही जरूरी है। पर संतुलन सबसे ज्यादा जरूरी है। बड़े-बड़े शहरों में, महानगरों में जहाँ खूब विकास हुआ है, वातावरण उतना ही प्रदूषित हो गया है। वायु और जल खतरनाक स्तर तक प्रदूषित हो गए हैं। सड़कों को चौड़ा करने में काफी बड़े-बड़े पेड़ों की कटाई हुई है और उस अनुपात में पेड़ लगाये नहीं गए। पेड़ लगाने के लिए जगह भी नहीं बचे। फिर दिन रात चलती हुई गाड़ियों से निकलते धुंए, कारखानों के धुंए वातावरण को प्रदूषित कर रहे हैं तो कारखानों और शहरों की नालियों से निकलने वाले गंदे और रसायनयुक्त द्रव के कारण सारी नदियाँ प्रदूषित हो रही है।
विकसित देशों ने काफी कुछ कदम उठाए हैं पर भारत जैसे विकासशील देशों में अभी बहुत कुछ करना बाकी है। हमारे यहाँ भी योजनायें अनेक हैं। परिणाम क्या निकला? - एक बड़ी ख़ामोशी। गंगा प्रदूषण नियंत्रण से लेकर नमामि गंगे परियोजना के भी परिणाम अभी तक उल्लेखनीय नहीं है। यमुना आरती भी की गयीनर्मदा सेवा यात्रा भी निकाली गयी है इन  सबका केवल प्रचार-प्रसार और फोटो-सेशन के अलावा अभीतक कुछ परिणाम नहीं निकला है। सभी योजनाओं में धन का भी खूब अपव्यय होता है पर परिणाम - ढाक के तीन पात!    
गांव भी शहर में तब्दील होने लगे हैं, फलस्वरूप गाँव का वातावरण भी धीरे-धीरे प्रभावित हो रहा है। फिर भी छोटे शहर और गाँव अभी भी काफी हद तक साफ़ और प्रदूषण-मुक्त हैं। अभी हाल ही में मैं पश्चिम बंगाल के दौरे पर गया था। वहां दूर-दराज में देखा हवा काफी साफ़ है। ऐसा लगता है शुद्ध ऑक्सीजन का भण्डार वहीं है। गंगा, हुगली आदि नदियों का जल काफी साफ़ है। पेड़ पौधे भी पर्याप्त मात्रा में है। ट्रैफिक भी कोलकाता की अपेक्षा कम है और बैटरी से चलनेवाले काफी रिक्शे हैं जिनसे प्रदूषण नहीं होता। नगरपालिकाओं द्वारा साफ सफाई का ध्यान रक्खा जाता है और लोगों में कचड़ा प्रबंधन के प्रति जागरूकता है।
प्रधान मंत्री श्री मोदी के महत्वाकांक्षी योजनाओं में एक स्वच्छ भारत अभियान भी है। इसके भी अपेक्षित परिणाम आने अभी बाकी हैं।
सवाल है कि सरकारी योजनाएँ तो बनती ही है – पर हमारी सरकारें, सरकार के अधिकारी/कर्मचारी गण क्या उतने ही गंभीर हैं, योजनाओं को जमीनी-स्तर तक पहुँचाने में। आम नागरिक रूप में हमारी क्या भूमिका है और क्या होनी चाहिए। क्या सरकार के साथ हमारी जिम्मेवारी नहीं है कि पर्यावरण संरक्षण में हम भी अपना कर्तव्य का भली भाँती निर्वाह करें? अपने आस-पास के वातावरण को साफ़ रखना क्या हमारी जिम्मेवारी नहीं है?  
शुरुआत अपने घर से ही करें। घर से बाहर और आस पास तक पहुंचे, कई गैर सरकारी संस्थाएं भी इस तरह के कार्यक्रम में अपनी भूमिका निभा रही है हम भी उनका सहयोग तो कर ही सकते हैं।
पर्यावरण का एक दुश्मन प्लास्टिक और पॉलिथीन की थैलियां हैं जिनका इस्तेमाल हम सभी कमो-बेश करते ही हैं। इनके उपयोग पर सरकारी नियंत्रण हमेशा खोखला साबित हुआ है। इसे हम ही नियंत्रण कर सकते हैं। कम से कम प्रयोग कर और उसे उचित निस्तारण से। टाटा की अनुषंगी इकाई जुस्को ने बेकार प्लास्टिक को पिघलाकर सड़क बनाने के लिए इस्तेमाल शुरू किया है। इसे कोलतार की जगह इस्तेमाल किया जाता है और यह सड़कें कोलतार की सड़कों से ज्यादा टिकाऊ होती हैं। वर्षा जल के प्रवाह को भी यह कोलतार की अपेक्षा ज्यादा सहन कर सकती है। 
इसके बाद आते हैं नदियों के प्रदूषण पर – नदियों में कारखाने में उपयोग किये गे जल और नगरपालिका की नालियों का गन्दा पानी प्रवाहित करने के लिए छोड़ दिया जाता है। इन्ही नदियों का पानी पीने के लिए इस्तेमाल होता है। साफ़ करने के बाद भी अनगिनत रसायन और बैक्टीरिया पानी में रह जाते हैं जो कई तरह की बीमारियाँ पैदा करती है। यह काम और सरकार का है। पर हम लोग भी नदियों को गन्दा करने में कम योगदान नहीं करते हैं क्या? पूजा के बाद अवशिष्ट सामग्री, मूर्तियाँ जिन्हें बनाने में धरल्ले से विभिन्न हनिकारका रसायनों का इस्तेमाल होता है नदियों में ही प्रवाहित करते हैं। अगर सरकारी पर्तिबंध लगा तो धरम और आस्था का मामला हो जाता है। समय के साथ सोच में परिवर्तन लाना निहायत ही जरूरी है। शव को जलाने की परंपरा हिंदु संस्कृति में है। शव जलने में ढेर सारी लकड़ियों का इस्तेमाल होता है।  इससे लकड़ियाँ तो अनावश्यक रूप से जलाई ही जाती है ऊपर से प्रदूषण हवा में ही फैलता है आस-पास खड़े लोगों के फेफड़ों में भी वही प्रदूषित हवा सांसों के द्वारा शरीर में जाती है। अब शहरों में काफी जगह विद्युत शवदाह गृह बनाये गए हैं हम उनमे भी शव को जला सकते हैं जिनसे कम समय भी लगता है और हवा कम प्रदूषित होती है साथ ही लकड़ियों की भी बचत होती है।
शादी-विवाह के अलावा अन्य अवसरों पर भोज का आयोजन कराया जाता है। हम से अधिकांश लोग वहां खाना को बर्बाद करते हैं। जगह को गन्दा कर छोड़ देते हैं। यहाँ जागरूकता और चेतना की जरूरत है। खाद्य सामग्री बरबाद करने की क्या आवश्यकता है। आज भी अनेक गरीब लोग भूखे पेट सोने को मजबूर हैं। जमशेदपुर में Voice of Humanity (मानवता की आवाज) नामक स्वनियंत्रित संस्था काम कर रही है जो नौजवानों का समूह है। यह बचे हुए भोजन सामग्री को जमकर गरीबों को भोजन करती है इसके अलावा कई अन्य सामाजिक काम भी यह संस्था करती है।
इसके अलावा विलासिता से सम्बंधित बहुत सारी वस्तुओं का कम उपयोग कर हम वातावरण को कम प्रदूषित कर सकते हैं। जैसे छोटी-छोटी दूरी को पैदल चलकर, सार्वजनिक वाहनों का प्रयोग करके, दूसरों को प्रशिक्षित/जागरूक कर हम अपना योगदान तो कर ही सकते हैं।
आइये पर्यावरण को कल के लिए बचाकर रक्खें और इसके लिए संकल्पित हों। अपना सुधार समाज की सबसे बड़ी सेवा है। 

-    जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर।

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