Sunday 18 October 2015

साहित्यकार विरोध कैसे करें ?


देश  में बढ़ रही असहिष्णुता और प्रधान मंत्री की चुप्पी के विरोध में बहुत सारे जाने-माने साहित्यकार अपने पुरस्कार लौटाकर विरोध कर रहे हैं. इसकी शुरुआत हिंदी के जाने माने लेखक उदय प्रकाश ने कन्नड़ लेखक एम एम कुलबर्गी की हत्या के विरोध में किया. फिर नयनतारा सहगल ने यह कहकर वापस किया कि भारतीय संस्कृति की विविधता और वाद विवाद पर भयंकर प्रहार हो रहे हैं. इसके बाद अशोक बाजपेयी ने भी ऐसा ही किया और कहा कि यह सही वक्त है जब लेखकों को ऐसी घटनाओं के खिलाफ लामबंद होना चाहिए. फिर तो इसकी झड़ी लग गयी और अबतक लगभग दो दर्जन पुरस्कार वापस किये जा चुके हैं और यह सिलसिला जारी है. अब तो पद्म पुरस्कार भी लौटाए जाने की तैयारी है. 
हरियाणा के हिंदी के वरिष्ठ कवि व चिंतक मनमोहन ने हरियाणा साहित्य अकादमी से मिला सम्मान और इसके साथ मिली 1 लाख रुपये की राशि लौटा दी है. मनमोहन को हरियाणा साहित्य अकादमी से 2007-08 का महाकवि सूरदास सम्मानृ प्राप्त हुआ था। इस सम्मान के साथ मिली एक लाख रुपये की धनराशि उन्होंने वैचारिक नवजागरण मूल्यों के लिए काम कर रही स्वैच्छिक सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था हरियाणा ज्ञान-विज्ञान समिति को भेंट कर दी थी, लेकिन अब सम्मान लौटाते हुए उन्होंने 1 लाख रुपए की यह राशि अपने पास से अकादमी को चेक के जरिए भेज दी है।
इस सम्मान के रूप में उन्हें प्रशस्ति पत्र, स्मृति चिहृ, शाल और एक लाख रूपए की राशि मिली थी. हरियाणा में अपनी पीढ़ी के बड़े कवियों में शुमार मनमोहन वैचारिक प्रतिबद्धता के लिए जाने जाते हैं. आपातकाल के दौरान वे जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के छात्र थे और उस समय भी आपातकाल के विरोध में राजा का बाजा जैसी उनकी कई कविताएं बेहद चर्चित हुई थीं. हरियाणा में नवजागरण आंदोलन में भी उनकी प्रभावी नेतृत्वकारी उपस्थिति रही है। वे तीन वर्ष पहले ही रोहतक के महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय से बतौर प्रोफेसर रिटायर्ड हुए हैं. मनमोहन ने हरियाणा साहित्य अकादमी को भेजे पत्र में देश में असहमति के अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को हिंसक तरीके से दबाने के तेज हुए चलन और बुद्धिजीवियों-लेखकों की हत्याओं पर चिंता जाहिर की है. उन्होंने दुख जताया है कि जिम्मेदार संवैधानिक पदों पर बैठे अनेक लोग और राजनेता ऐसी घटनाओं का औचित्यीकरण कर रहे हैं या उन्हें सीधे प्रोत्साहित करते दिखाई दे रहे हैं. उनका कहना है कि कुछ समय से देश के सार्वजनिक जीवन में असहमति के अधिकार या अपना अलग दृष्टिकोण रखने की आजादी को हिंसक तरीके से दबाने का चलन तेज हुआ है. मनमोहन ने कहा कि देश के तीन बड़े बुद्धिजीवियों और लेखकों नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पनसारे और एम. एम. कलबुर्गी को जान गंवानी पड़ी है। दुख की बात यह है कि जिम्मेदार संवैधानिक पदों पर बैठे अनेक लोग और राजनेता ऐसी घटनाओं का औचित्यीकरण कर रहे हैं या उन्हें सीधे प्रोत्साहित करते दिखाई दे रहे हैं -. पंजाब केसरी में दीपक भारद्वाज की रिपोर्ट से साभार.
जिन लोगों को लगता है इमरजेंसी के वक़्त या पहले लेखकों ने प्रतिरोध नहीं किया उनके लिए कुछ तथ्य हैं. धर्मवीर भारती ने खतरे उठाकर आकाशवाणी से मुनादी कविता पढ़ी थी। उन्हें वहीँ से गिरफ्तार कर लिया गया. नागार्जुन ने सीधे इंदिरा गांधी के खिलाफ कविता लिखी, गिरफ्तार हुए. फणीश्वर नाथ रेणु जेल गए. तो मुखर विरोध और गिरफ्तारी से भी नहीं डरे लेखक. कुछ ज़रूर थे जो रातोरात पाला बदल गए. वे अब भी हैं लेकिन प्रतिरोध का तरीक़ा तब भी उन्होंने चुना. आज भी उन्होंने चुना है..... और अब प्रख्यात शायर मुनव्वर राणा ने भी अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार के साथ एक लाख का चेक भी लौटने का ऐलान कर दिया. कब तक आप इन्हें रोकेंगे.
इस के पक्ष और विपक्ष में बहुत सारे तर्क-वितर्क-कुतर्क भी दिए जा रहे हैं. हालाँकि इस बात से लगभग सभी सहमत हैं कि नरेन्द्र दाभोलकर, गोविन्द पंसारे, कुलबर्गी एवं इखलाक की हत्याएं दुर्भाग्यपूर्ण है और ऐसा नहीं होना चाहिए था. देर-सवेर राष्ट्रपति के द्वारा दुःख जताए जाने के बाद प्रधान मंत्री ने अपनी चुप्पी तोडी जबकि इखलाक की हत्या पर अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा भी अपनी असहमति पहले ही जता चुके थे. सारा विश्व इस घटना को शर्मनाक कह रहा था, जबकि तब भी बहुत सारी कट्टर हिंदूवादी ताकतें इसे सही बताने पर तुली हुई थी.   
पुरस्कार लौटने के सिलसिले में बहुत सारे लोग अनेकों सवाल खड़े कर रहे थे – जैसे सिर्फ पुरस्कार के प्रतीक-चिह्न लौटा रहे हैं या पुरस्कार के साथ दी गयी धन-राशि भी. जब मालूम हुआ कि धन-राशि भी लौटा रहे है, तो सवाल करने लगे उसका ब्याज भी लौटाया जाना चाहिए. अब कुछ लोग यह भी सवाल कर रहे हैं कि पुरस्कार के बाद उन्हें जो प्रसिद्धि मिली, उसे कैसे वापस करेंगे? पुरस्कार मिलने से उनके पुस्तकों की बिक्री बढ़ी, उसे कैसे वापस करेंगे? कुछ का तो यह भी कहना है कि उन्हें अब तक कोई जानता नहीं था तो अपने आपको प्रचारित करने के लिए ऐसा कर रहे हैं. इसमें कोई संदेह नहीं कि पुरस्कार लौटाने के विरोध करने वाले ‘ये लोग’ सभी मौजूदा सरकार के समर्थक हैं और इसे सही ठहराने वाले सरकार के विरोधी.     
अब सवाल यह उठता है कि साहित्यकार आखिर अपना विरोध कैसे दर्ज करें? मानते हैं कलम में बहुत ताकत होती है, पर आज माध्यम बहुत हो गए हैं, सोसल मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया काफी सक्रिय है और लोगों का ज्यादा समय इन्हें ही देखते सुनते बीत जाता है. सोसल मीडिया पर भी हर प्रकार के तत्व सक्रिय है. अगर आपको तर्कों से पराजित नहीं कर पाए तो कुतर्कों पर उतर आयेंगे, अगर उससे भी बात न बनी तो आपका चरित्र हनन करने लग जायेंगे आपके व्यक्ति-गत जीवन के अधखुले पन्नों को चीर फाड़कर रख देंगे. या कुछ ‘फेक’ चित्रों म माध्यम से ही आपका चरित्र हनन कर डालेंगे. आज महात्मा गाँधी, जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी आदि के नाम को इतिहास से मिटने पर  तुले हैं. उनकी जगह भगत सिंह, सरदार वल्लभ भाई पटेल, सुभाष चन्द्र बोस, नाथूराम गोडसे, गुरु गोलवरकर, पंडित दीन दयाल उपाध्याय आदि को स्थापित करने में लगे हैं. इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती है कि सभी इतिहास पुरुष अपने आप में अनूठे थे. सही और गलत हो सकते हैं. लेकिन तब के हालात और आज के हालात में अंतर है. आज भी अटल बिहारी बाजपेयी सर्वमान्य नेता हैं. मोदी जी आज काफी लोकप्रिय हैं, सबका अपना-अपना योगदान है. इसका मतलब किसी के योगदान को मिटाना मेरे ख्याल से सर्वथा अनुचित है. कवि गुरु रविंद्रनाथ टैगोर ने भी अंग्रेजों के द्वारा किये जा रहे जुल्म के खिलाफ अंग्रेजों द्वारा ही दिए गए  'नाईट हुड' की उपाधि लौटाने का काम किया था. लेखक, साहित्यकार, चिन्तक, विचारक हमारे धरोहर है. इन्होने समय समय पर देश को नयी दिशा देने का काम किया है उनके योगदान को नकारा नहीं जा सकता. उनकी अभिव्यक्ति की आजादी छीनी नहीं जानी चाहिए. 
अभी मोदी जी को सत्ता सम्हाले हुए मात्र १७ महीने हुए हैं. उनके कुछ कार्य जैसे स्वच्छ भारत अभियान, जनधन योजना, बीमा योजना आदि प्रशंसनीय है, तो कुछ के परिणाम आने अभी बाकी है. प्याज, दाल और खाद्य तेलों के बढ़ते दामों से आम जनता परेशान है पर कुछ ख़ास उपाय नहीं किये जा रहे हैं, निर्यात में कमी हो रही है, रुपये का अवमूल्यन हो रहा है, रोजगार में बृद्धि नहीं हो रही है फिर भी युवा वर्ग आज  ही मोदी का दीवाना है. बहुत सारे युवाओं के लिए वह 'आइकॉन' बने हुए हैं. उन्हें मोदी से बहुत कुछ आशाएं हैं. यही युवा दो तीन साल बाद अपने भविष्य में सुधार नहीं पाएंगे तो क्या मोदी को समर्थन देते रहेंगे, कहना मुश्किल है. परिवर्तन संसार का नियम है. इस संसार में विभिन्न विचारों के लोग हैं. सबके विचार, खान-पान, वेश-भूषा अलग अलग हो सकता है. उन्हें ऐसा करने की छूट है जबतक कि वे दूसरे को नुक्सान नहीं पहुंचा रहे हैं. आप अपना विचार रख सकते हैं. अपने विचार किसी पर थोप नहीं सकते हैं. कानून का राज ही चलता है और कानून के अनुसार ही सजा दी जा सकती है.
अंत में मेरा मानना है कि सबको अपना विचार रखने दीजिये. आपको पसंद है तो उसपर चलिए अन्यथा अपना रास्ता आप बनाइये और लोगों को बताइए कि आपका रास्ता क्यों सही है. अन्यथा विकास का कदम डगमगा जायेगा. जो देशी-विदेशी निवेश होना है, उसके लिए अनुकूल माहौल चाहिए. आम जनता भी अमन चैन, के साथ दाल-रोटी कमाना चाहती है. साम्प्रदायिक या जातीय तनाव कोई भी नहीं चाहता. कुछ दिग्भ्रमित लोग ही अवांछित घटनाओं का अंजाम देते हैं. इसका राजनीतिक लाभ कुछ नेता अवश्य उठा लेते हैं. पर इसके दूरगामी परिणाम से भी सभी परिचित हैं. अब सुनने में आया है प्रधान मंत्री भी अपने बयानवीर नेताओं से परेशान है और उन सबको यथोचित चेतावनी दी गयी है. अब देखा जाय इसका कितना लाभ बिहार के चुनाव में किसे होता है. देश को अगर प्रगति के पथ पर चलाना चाहते है तो उसे समरसता, भाईचारा का वातावरण चाहिए घृणा का कडवापन नहीं.    

जयहिन्द! जय भारत! – जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर.

Saturday 3 October 2015

‘स्वच्छ भारत’ अभियान के एक वर्ष

२ अक्टूबर २०१४ को प्रधान मंत्री मोदी ने ‘स्वच्छ भारत’ मिशन की शुरुआत की थी. इस अभियान के तहत उन्होंने दिल्ली के बाल्मिकी नगर में खुद झाड़ू लगाकर और वहां बने बायो टॉयलेट का उद्घाटन कर किया था. श्री मोदी ने वहां से कई नामचीन लोगों को नामित किया था. जो इस स्वच्छता अभियान को आगे बढ़ाएंगे. सभी ने औपचारिक रूप से झाड़ू पकड़कर फोटो सेशन तो अवश्य करवा लिए पर धरातल पर कितना काम हुआ उसका परिणाम दिल्ली में डेंगू की बीमारी और उससे हुई मौतों का आंकड़ा बतलाता है.
तत्पश्चात ८ नवम्बर को इसी अभियान को आगे बढ़ाते हुए बनारस के अस्सी घाट से गंगा पूजन के बाद प्रधानमंत्री ने फावड़े से कचरा हटाकर सफाई अभियान की शुरुआत की. वहां जमा तलछट की मिट्टी को हटाने की शुरुआत स्वयं श्री मोदी ने कुदाल चलाकर किया था. उन्होंने लगातार १५ बार कुदाल चलाया था और मिट्टी को टोकड़ी में एक कुशल मजदूर की भांति ही इकठ्ठा किया था. सचमुच वह पल अविस्मरणीय था. सारे देश में खूब प्रशंशा हुई थी ऐसा काम करने वाले वे पहले प्रधान मंत्री थे. वहां से भी उन्होंने कुछ नामचीन लोगों को नामित किया. उसके फलाफल सभी जानते हैं.
आज़ादी के बाद से भारत मे एक दर्जन से अधिक प्रधानमंत्री हुये, जिनमे कई बड़े नाम भी हैं , लेकिन शांति के इस मसीहा(बापू) के सपनों का भारत धरातल के आसपास भी नज़र नही आता. हर साल गांधी जयंती पर गांधीवाद पर बात होती तो होती है, लेकिन अमल की नौबत नही आती है. आजकल तो कुछ संघटन शांति के इस मसीहा(बापू) को सवालों के घेरे मे भी खड़ा कर देतें हैं. गांधी के सपनों के भारत मे स्वच्छ भारत भी था. करीब 100 साल पहले महात्मा गांधी ने भारत में अपने पहले सार्वजनिक भाषण मे गंदगी का जिक्र किया था. 6 फरवरी सन 1916 को उन्होिने वराणसी मे दिये अपने इस भाषण मे आस्थान नगरी की गंदगी का जिक्र करते हुये स्वच्छ भारत की वकालत की थी. आज सौ साल बाद भी इस मामलें मे शिव की नगरी काशी के हालात बहुत नही बदलें हैं. पर अस्सी घाट की तस्वीरें बदल गई. इसे बदलना भी था क्योंकि यह मोदी जी की शुरुआत थी. इसकी तस्वीर बदलने में कई स्वयम सेवी संगठन और उद्योग घराने का भी हाथ है. बनारस का अस्सी घाट अब मुंबई की चौपाटी की तरह हो गया है. यहां सिर्फ ‘सुबहे बनारस में भोर का संगीत’ ही नहीं बल्कि शाम को भी संगीत की धुन गूंजने लगी है. ये संगीत उन छोटे-छोटे बच्चों का है जो यहां गिरजा देवी के नाम पर शुरू हुए समर कैम्प में भाग लेने लगे हैं. अस्सी घाट पर इस तरह का ये पहला समर कैम्प लगा जहां बच्चों को नृत्य, गायन, पेंटिंग, जूडो, जैसे क्लास चले हैं, जिसमें बड़ी संख्या में बच्चों के साथ उनके माता-पिता ने भी हिस्सा लिया और ये सब अस्सी घाट पर जमी मिट्टी के हटने के बाद हुआ है.
करीब एक साल बाद कितना साफ हुआ भारत, इसका सटीक आंकलन थोड़ा मुश्कि ल है. लेकिन देश की राजधानी दिल्लीु की तस्वीदर मे तो बदलाव दिखता है. रेलवे स्टेलशन से लेकर हर वह जगह जहां सार्वजनिक आवाजाही रहती है, एक साल मे कुछ बदला – बदला दिखता है.लेकिन राजधानी दिल्ली की तस्वी र से देश के सुदूर इलाकों की हालत का मिलान नही किया जा सकता है. केन्द्रत सरकार के शहरी विकास मंत्रालय ने पूरे एक साल देश भर के 476 शहरों की साफ-सफाई का जायजा लिया. ये पता करने की कोशिश की कि सफाई के मामले में किस शहर को कितना सफर तय करना है. सर्वे के मुताबिक साफ सफाई के मामले में टॉप पर है कर्नाटक का मैसूर और इसके अलावा कर्नाटक के तीन और शहरों ने भी टॉप टेन में जगह पाई है. सनद रहे कि दक्ष्िकण भारत पहले से ही हर मामले मे जागरूक रहा है. इस लिये दिल्लीू या दक्ष्ि ण के कुछ शहरों को देख कर ये नही कहा जा सकता कि स्वच्छ भारत अभियान करोड़ों के प्रचार के बाद भी परवान चढ़ रहा है. बिहार, उत्त र प्रदेश, उड़िसा, मध्यो प्रदेश, राजस्थाान जैसे राज्योंे के तमाम शहरों यहां तक कि वाराणसी के हालात भी जस के तस हैं. अस्पताल के बाहर कूड़े का ढेर, स्कूल के बाहर गंदगी का अम्बार, सरकारी दफ्तर के बाहर कचरे का जमावड़ा, बजबजाती नालियां, गन्दगी से पटी सड़कें, दीवारों पर पान की पीक और गली मोहल्लों में घूमते आवारा जानवर, आज भी यही देश के तमाम शहरों की तस्वीर है. नगर निगम से लेकर नगर पालिकाओं तक संसाधनों का अभाव है. छोटे शहरों मे तो कई दिन तक कूड़ा नही उठने की शिकायतें आम है. बड़ी नदियों में आज भी प्रति दिन करोड़ों लीटर गंदगी समा रही है. हां चित्रकूट जैसे पवित्र स्थ लों पर जरूर कुछ जागरूकता दिखती है. सरकारी अफसरों सहित आम नागरिक मंदाकनी को साफ करने और रखने मे आगे बढ़े हैं.
इसी तरह देश भर के स्कूलों खास कर के सरकारी स्कूअलों मे छात्र-छात्राओं के लिए अलग-अलग शौचालय की दरकार लम्बे अरसे से है. क्योंछ कि छात्राओं के स्कू-ल छोड़ने की एक वजह सरकारी प्राइमरी और जूनियर स्कू लों मे शौचालय का ना होना भी बताया जाता है. प्रधानमंत्री ने सभी स्कूलों में लड़के और लड़कियों के लिए अलग शौचालय बनाने की बात की और देश को यह भरोसा दिलाया कि वह इस लक्ष्य को जल्द से जल्द पूरा भी कर लेंगे. जाहिर है कि यह उनकी संवेदनशीलता और देश के शहरी वा ग्रामीण इलाकों की समझ को दर्शाता है. पर सालभर बीत जाने के बाद भी परिस्थितियों में कोई खास बदलाव नहीं आया है. हां, इस बारे में थोड़ी हलचल तो है लेकिन यह केवल बात के स्तर पर ही देखी जा सकती है. इस बारे में हकीकत में कुछ खास होता हुआ नहीं दिखता. कागज़ और आंकड़ों मे ज़रूर लक्ष्य. के नज़दीक पहु्ंचना बताया जा रहा है. स्वच्छ विद्यालय का लक्ष्य देश के सभी स्कूलों में पानी, साफ-सफाई और स्वास्थ्य सुविधाओं का पुख्ता इंतजाम रखा गया है.ये अभियान सेकेंडरी स्कूलों में लड़कियों की एक बड़ी आबादी को रोकने में अहम भूमिका निभा सकता है. एक आंकड़े के अनुसार देश में 3.83 लाख घरेलू और लगभग 17,411 सामुदायिक शौचालयों का निर्माण हुआ, लेकिन बीते साल कितने स्कूलों में शौचालयों का निर्माण हुआ, इसका जवाब न सरकारी विभागों के पास है और न ही किसी सामाजिक संगठन के पास. सरकार के मुताबिक अभी देश के दो लाख स्कू लों मे शौचालय नही है. फिलहाल मानव संसाधन विकास मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, 2012-13 में देश के 69 प्रतिशत स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय की व्यवस्था थी जबकि 2009-10 में यह 59 प्रतिशत थी. 2013-14 में हालांकि करीब 80.57 प्रतिशत प्राथमिक स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय की व्यवस्था है. स्थिति पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पन्द्रह अगस्त को ऐतिहासिक लाल किले की प्राचीर से सांसदों और कारपोरेट क्षेत्र से अगले साल तक देश भर के स्कूलों में शौचालय, विशेषकर लड़कियों के लिए अलग शौचालयों के निर्माण में मदद करने की अपील की थी. लेकिन फिलहाल देश के करीब 38 प्रतिशत स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय नहीं है. हालांकि, 95 प्रतिशत स्कूलों में पेयजल सुविधा उपलब्ध है. देश के स्कूललों मे 62 फीसदी स्कूरलों मे शौचालयें होने का दावा जरूर किया जा रहा है लेकिन ये आंकड़े दस्तावेजों में ही सही दिखतें हैं. अगर हालात छोड़कर इन तथ्यों पर भरोसा किया जाए तो फिर राज्य के ग्रामीण इलाकों में लड़कियां पढ़ाई बीच में ही क्यों छोड़कर चली जाती हैं? शहरी इलाकों मे हालात गांव जितने खराब नही है. दूसरी बात, अगर इन शौचालयों में से अधिकतर बुरे हाल में हैं तो इसका अर्थ यह है कि राज्य सरकार शौचालयों के रख-रखाव के लिए बजट मुहैया नहीं कराती. ग्रामीण इलाकों के स्कूलों में शौचालयों में पानी की अनुपलब्धता बड़ी चिंता का विषय है.
स्वच्छ भारत अभियान की सफलता या असफलता का रास्ताौ ग्रामीण भारत से ही हो कर जाता है. सनद रहे कि देश मे इससे पहले भी स्वच्छ भारत अभियान चला था. सन 1986 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने केंद्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम की शुरुआत की थी. 1999 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इसे थोड़ी ऊंचाई देते हुए पूर्ण स्वच्छता अभियान का नाम दिया. मोदी सरकार ने इसका पुनर्निर्माण करते हुए फ्लश सिस्टम वाले शौचालयों पर ध्यान केंद्रित किया और खुले में शौच बंद करने और मानव द्वारा मल उठाने पर रोक लगाने की बात की थी. इसके अलावा ठोस अपशिष्ट प्रबंधन और पर्यावरण के प्रति जागरूकता लाने की भी बात शुरू की गई.
हांलाकि इस पूरे हालात के लिये अकेले प्रधानमंत्री को कठघरे मे खड़ा नही किया जा सकता है. राज्य सरकारें और जिम्मेीदार अमला और जिम्मेदार नागरिक भी इसके लिये ज़् यादा दोषी नजर आता है. पीएम मोदी की तो इसके लिये तारीफ की जानी चाहिए कि बापू के सपनों को साकार करने के लिये उन्होमने एक आवाज़ दी है. बहरहाल प्रधानमंत्री अब ज़रूर इस बात को महसूस कर रहे होंगे कि स्वच्छ भारत कहना और सपना देखना तो आसान था पर पूरा करना कठिन है. – फिर भी एक शुरुआत हुई है तो हम सबको उसमे यथासंभव योगदान तो करना ही चाहिए इसी में सबका भला है.
बहुत अच्छा अभियान है यह. सफलता में समय लगेगा …. इसका दायरा थोड़ा आगे भी बढ़ाना चाहिए. जैसे स्वच्छ परिवेश के साथ स्वच्छ विचार, स्वच्छ व्यवहार, सदाचार, सर्वधर्म समभाव, ईर्ष्या द्वेष का नाश, सबका साथ सबका विकास, और सार्वजनिक बयानों में भी स्वच्छता जो आये दिन वातावरण को विषाक्त बनाने के लिए काफी है. जय हिन्द!
– जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर