Sunday 27 September 2015

धार्मिक आयोजन के दौरान भगदड़

वैसे तो कहा जाता है कि सभी धर्म ईश्वर के द्वार तक पहुँचानेवाले अलग-अलग रास्ते हैं.
सभी धर्मों में अच्छी बातें ही बताई गयी हैं. व्याख्या करनेवाले अपने-अपने तरीके से व्याख्या करते हैं और उनमे भी अक्सर विवाद होते ही रहते हैं. सभी धर्मों में सदाचार, अहिंसा, आत्मशुद्धि, स्वच्छता, पवित्रता, भाईचारा, आपसी सदभाव, मेल-जोल का पूर्णत: ख्याल रक्खा गया है. पर कुछ हठधर्मिता, कुछ अन्धविश्वास, कुछ अंध-श्रधा हर धर्मों में एक हद तक विद्यमान हैं. हिन्दुओं के लिए मंदिर, मुस्लिमों के लिए मस्जिद, सिक्खों के लिए गुरुद्वारा, ईसाईयों के लिए गिरिजा घर पवित्र स्थान है जहाँ पर सामूहिक रूप से आराधना/प्रार्थना की जाती है. वैसे तो हर दिन पवित्र दिन है, पर कुछ मान्यता वश एक ख़ास दिन हर धर्म में होता है, जिस दिन सभी जन इकठ्ठा होकर प्रार्थना/आराधना करते हैं. इन्ही खास दिनों को पर्व त्योहार के रूप में मनाते हैं. जो लोग रोज प्रार्थना/आराधना नहीं कर सकते उस खास दिन को पूरी तैयारी के साथ, पूरे मनोयोग से अपने आपको समर्पण कर देते हैं.
मुस्लिमों की तीर्थ नगरी मक्का है, जहाँ दुनिया भर के मुसलमान जुटते हैं और वहां से हज कर लौटने पर अपने आपको धन्य समझते हैं. हज के साथ वहां शैतान को पत्थर मारने का एक रश्म होता है. इस कंकड़ मारने के दौरान भी काफी भीड़ होती है और लगभग हर साल छोटे बड़े हादसे होते ही हैं. इसी साल २४.०९.२०१५ को मक्का में हजयात्रा के बीच शैतान को कंकड़ मारने के दौरान बड़ी भगदड मच गई और इस हादसे में अधिकारिक रूप से 717 लोगों की मौत हो गई, जबकि 805 हाजी जख्मी हो गए हैं. इस साल 30 लाख से ज्यादा लोग हज करने गए थे. हालांकि,शैतान को जहां सांकेतिक कंकड़ी मारी जाती है उस जगह पहुंचने के लिए काफी चौड़े रास्ते के अलावा पांच मंजिला फ्वाइओवर भी बनाए गए हैं, लेकिन लाखों की भीड़ और हाजियों की जल्दबाज़ी से ये हादसा हो गया.
इसके अलावा और भी कई हादसे मक्का में हुए है कुछ आंकड़े – जुलाई, 1990 मक्का से मीना और अराफात की ओर जानेवाले पैदल यात्री के लिए बनी सुरंग अलमयी सिम में हादसा हुआ जिसमें 1426 लोग मारे गए थे. मई, 1994 में शैतान को कंकड़ी मारने के दौरान हादसा हुआ जिसमें 270 लोग मारे गए. अप्रैल, 1998 में हादसा भी जमेरात की पुल पर हुआ, जिस रास्ते से हाजी शैतान को पत्थर मारने के लिए जाते हैं. इस हादसे में 118 लोग मारे गए और 180 लोग जख्मी हो गए. मार्च, 2001 में भी शैतान को पत्थर मारने के दौरान हादसे में 35 लोग मारे गए. फरवरी 2003 में शैतान को पत्थर मारने के दौरान हुए हादसे ने 14 लोगों की जान ले ली थी. फरवरी 2004 में शैतान को पत्थर मारने के दौरान 251 हाजी मारे गए, जबकि 244 जख्मी हो गए. इससे पहले 11 सितंबर को जुमे की शाम मस्जिद-ए-हरम में हुए क्रेन हादसे में 107 लोग मारे गए थे. दरअसल ये हादसा इसलिए हुआ क्योंकि मस्जिद के विस्तार का काम चल रहा है और भारी बारिश के बाद लाल रंग की बड़ी सी क्रेन मस्जिद की दीवारें तोड़ती हुई जमीन पर आ गिरी जिससे 100 से ज्यादा लोग मारे गए. मस्जिद के जिस हिस्से में ये हादसा हुआ था वहां करीब एक हज़ार लोग मौजूद थे.

भारत में भी बड़े धार्मिक आयोजन के दौरान भगदड़ की घटनाएं अक्सर होती रही हैं.
आइये कुछ आंकडे देखते हैं, जो अंतर्जाल से लिए गए हैं.
1986 – हरिद्वार में एक धार्मिक आयोजन के दौरान भगदड़ में 50 लोगों की मौत हो गई.
१४ जनवरी २०१० में गंगा सागर में भगदड़ हुई थी और उसमे सात तीर्थ यात्री मारे गए थे और अनेकों घायल भी हुए थे.
08-11-2011 – हरिद्वार में हुई एक भगदड़ के दौरान कम से कम 16 लोग मारे गए और 40 जख्मी हुए. गंगा के किनारे शांतिकुंज आश्रम के एक आयोजन के दौरान मुख्य समारोह स्थल के एक गेट पर भगदड़ मची.… भगदड़ उस समय हुई जब कुछ श्रद्धालुओं ने गायत्री परिवार के धार्मिक अनुष्ठान में हिस्सा लेने की जल्दी की.
14-01-2012 – मध्य प्रदेश के रतलाम में शहीदे कर्बला के 40 वें दिन हुए धार्मिक आयोजन के दौरान अचानक भगदड़ मच गई। इस भगदड़ में बारह लोगों की मौत हो गई और कई अन्य जख्मी हो गए।
20-02-2012 – गुजरात में भगदड़, 6 लोगों की मौत गुजरात के जूनागढ़ में आयोजित शिवरात्रि मेले में रविवार रात हुई
24-09-2012 … देवघर में अनुकूल चन्द्र ठाकुर की 125वीं जयंती पर सत्संग आश्रम में आयोजित समारोह में भगदड़ मे कम से कम 9 यात्रियों की मृत्यु और अनेक के घायल होने की घटना
11-02-2013 – बारह वर्षों में होनेवाले कुंभ मेले में रविवार को मौनी अमावस्या के दिन इलाहाबाद के रेलवे स्टे़शन पर भगदड़ मच जाने से लगभग 36 लोगों की मौत हो गयी।
०३.१०.२०१४ – बिहार की राजधानी पटना में रावण दहन के बाद भगदड़ में मरनेवालों की अधिकारिक संख्या 3४ बतायी गयी .
80 के दशक में जमशेदपुर में भी विजयादशमी के दिन भगदड़ मची थी और कई लोग मारे गए थे. उसके बाद जमशेदपुर में भगदड़ का इतिहास नहीं है.यहाँ के प्रशासन और अनुशासित नागरिकों ने भी सबक ले लिया.
इसी साल सावन के महीने में १० अगस्त २०१५ को देवघर में भी भगदड़ मची थी, उसमे भी ११ लोग मारे गए तथा दर्जनों घायल हुए थे.
दिक्कत यह है कि ऐसी घटनाएं होने के बाद भी न धार्मिक आयोजनों के आयोजक और नही स्थानीय प्रशासन सावधान रहता है। कम ही धार्मिक प्रतिष्ठान हैं, जो आमलोगों की सुविधा और सुरक्षा के नजरिये से योजनाबद्ध तरीके से आयोजन करते हों।
ज्यादातर जगहों पर आने-जाने के मार्ग इतने संकरे होते हैं कि भगदड़ होने पर लोगों के कुचले जाने का खतरा होता है। ज्यादातर मंदिरों या अन्य धार्मिक प्रतिष्ठानों का निर्माण तब हुआ था, जब देश की आबादी इतनी नहीं थी और यातायात के साधन भी सुगम नहीं थे। अब तो दूरदराज के मंदिरों में भी आसानी से लाखों लोग पहुंच जाते हैं। कई मंदिरों में पहले कुछ विशेष अवसरों पर ही थोड़ी-बहुत भीड़ होती थी, अब रोज वहां मीलों लंबी लाइनें देखने को मिलती हैं। हमारा आम रवैया यह होता है कि जबतक दुर्घटना नहीं हो जाती, तबतक कुछ नहीं करते और अगर दुर्घटना हो जाती है, तो दूसरों पर जिम्मेदारी डाल देते हैं। अब संचार और यातायात की सुविधा की वजह से लाखों लोगों का किसी आयोजन में इकट्ठा होना कोई मुश्किल नहीं है, इसलिए सुरक्षा के मामले में लापरवाही का रवैया चल नहीं सकता और यह बात सिर्फ आयोजकों को नहीं, वहां पहुंचने वाले श्रद्धालुओं को भी समझनी होगी। कोई नहीं चाहता कि श्रद्धा से की गई तीर्थयात्रा किसी के लिए मृत्यु का कारण बने, लेकिन धार्मिक आयोजन तभी सुरक्षित होंगे, जब आयोजक और श्रद्धालु, दोनों व्यवस्था और अनुशासन बनाए रखने की अपनी जिम्मेदारी को समझें।
आजकल अन्धानुकरण भी काफी बढ़ गया है, सभी लोग इन धार्मिक आयोजनों में शामिल होकर अपने पाप धो डालना चाहते हैं या पुण्य कमाकर सीधे स्वर्ग जाने की कामना रखते हैं. इसमे किसी को भी जरा सा धैर्य नहीं होता. आखिर हम सब विकसित होकर क्या सीख रहे हैं. आस्था होना अलग बात है और अन्धानुकरण अलग. हमें इनमे फर्क करना सीखना होगा. खासकर इन दुर्घटनाओं में बच्चे, बुजुर्ग और महिलाएं ही ज्यादा हताहत होते हैं कम से कम उन्हें तो इस भीड़-भाड़ से बचाए जाने की कोशिश की जानी चाहिए.
- जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर.

Sunday 20 September 2015

प्रधान मंत्री मोदी का वाराणसी दौरा

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नौ महीने के बाद शुक्रवार को अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी के दौरे पर पहुंचे। (पिछले तीन दौरे अत्यधिक बारिश या अन्य कारणों से रद्द हो चुके थे) प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुक्रवार को अपने संसदीय क्षेत्र में वाराणसी में 45,000 करोड़ रुपये की राष्ट्रव्यापी समन्वित बिजली विकास योजना (आईपीडीएस) की शुरुआत की। अधिकारियों ने बताया कि वाराणसी को 527 करोड़ रुपये मिलेंगे, जिससे बिजली के तारों को भूमिगत करने जैसे बिजली विकास के कई काम होंगे। पीएम मोदी ने कहा कि उन्हें खुशी है कि इस योजना की शुरुआत वह वाराणसी से कर रहे हैं। उन्होंने लोगों से कहा कि वे अपने घरों में एलईडी बल्ब लगाकर कम बिजली बिल और ज्यादा रोशनी पाएं। उनकी सरकार 2022 तक देश के हर गांव-हर घर तक बिजली पहुंचाएगी। देश 2022 में 75वां स्वतंत्रता दिवस मनाएगा। (एक और हशीन सपना!) उन्होंने कहा कि वाराणसी के लोगों को धन्यवाद देते हुए कहा कि उन्हीं की वजह से वह आज सांसद और प्रधानमंत्री हैं।
पीएम मोदी ने सात और परियोजनाओं की भी शुरुआत की। इनमें वाराणसी में रिंग रोड का निर्माण, बाबतपुर हवाईअड्डे से शहर आने वाली सड़क का चौड़ीकरण और सुंदरीकरण भी शामिल हैं। उन्होंने उत्तर प्रदेश के शिक्षा मित्रों से वादा किया कि उनकी समस्या को वह देखेंगे। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में राज्य के शिक्षा मित्रों की नियुक्ति को अवैध बताते हुए रद्द कर दिया था। “मुझे यह जानकर बेहद तकलीफ हुई है कि अदालती आदेश की वजह से एक शिक्षामित्र ने खुदकुशी कर ली है।” उन्होंने शिक्षामित्रों से ऐसे कदम नहीं उठाने की अपील की और कहा कि अदालत के आदेश की प्रतियां मिलने के बाद इस मसले का समाधान निकाला जाएगा।
पीएम मोदी के भाषण के मुख्य अंश – मानव जाति को ज्ञान देने का काम किया इस शहर ने| ऊर्जा का नेतृत्व करेगा बनारस का शहर। बनारस में रिंग रोड का निर्माण किया जाएगा। करीब 600 करोड़ रुपये लगेंगे। आप-पास के जिलों को भी जोड़ा जाएगा। 11,000 करोड़ रुपये इसमें लगेंगे। बनारस की सड़कों ठीक किया जाएगा। आईपीडीएस योजना की शुरुआत बनारस से की गई। देशभक्तों के सपनों का हिंदुस्तान बनाएंगे। सभी गांव, जंगल को 2022 तक 24 घंटे 365 दिन बिजली मिलेगी| 45,000 करोड़ रुपये लगाया जाएगा। बनारस में 572 करोड़ रुपये लगेंगे। बिजली पानी सड़क का इस इलाके में जाल बिछाया जाएगा। इस काम को पूर्वी उत्तर प्रदेश में किया जाएगा। घाटों पर एलईडी की व्यवस्था से लोग खुश है। इससे बिजली का बिल कम होगा। पीएम मोदी की लोगों से अपील एलईडी का प्रयोग करें…
गरीबी से लड़ने का सबसे बड़ा हथियार शिक्षा : उन्होंने एक कार्यक्रम में जरूरतमंद लोगों को रिक्शा और ई-रिक्शा वितरित किए। वाराणसी में रिक्शा चालकों को 501 पैडल और 101 ई-रिक्शे तथा सोलर लैंप वितरित (सभी रिक्शों के रंग भगवा है सभी रिक्शेवालों को भगवा गमछा भी भेंट में दिया गया| ताकि याद रहे!) इस मौके पर अपने भाषण में पीएम मोदी ने कहा कि सालों से हम सिर्फ ‘गरीबी हटाओ’ के नारे सुनते रहे। गरीबों की भलाई के बारे में दिन-रात बातें करना एक परंपरा-सी बन गई है, लेकिन गरीबों की जिंदगी में काफी कम बदलाव आए हैं। उन्होंने कहा कि तकनीक के सहारे गरीबों के जीवन में बदलाव आ सकता है। पीएम मोदी ने कहा कि गरीबी से लड़ने का सबसे कारगर तरीका है अपनी संतानों को शिक्षित करना। कांग्रेस द्वारा 70 के दशक में दिए गए ‘गरीबी हटाओ’ नारे को हकीकत में नहीं बदल पाने को लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गरजते हुए दावा किया कि पिछले 50 सालों में जो काम नहीं हो पाया, उसे वह 50 महीने में पूरा करके दिखाएंगे। प्रधानमंत्री ने कांग्रेस को ललकारते हुए कहा कि जिन्होंने पिछले 40-50 साल में गरीबों के खाते तक नहीं खोले और उनकी अहमियत नहीं समझी, वो उनसे हिसाब मांग रहे हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने निचले स्तर की सरकारी नौकरियों में इंटरव्यू समाप्त करने को बुराइयों को साफ करने की दिशा में एक बड़ा कदम बताते हुए शुक्रवार को कहा कि उनकी सरकार इस दिशा में तेजी से आगे बढ़ रही है। मोदी ने एक रैली को संबोधित करते हुए कहा कि कई विभाग इस दिशा में पहल कर रहे हैं और रेलवे ने तो घोषणा भी कर दी है कि एक स्तर की नौकरी के लिए अब इंटरव्यू नहीं होगा। (अच्छी पहल) इसकी घोषणा वे १५ अगस्त को लाल किले की प्राचीर से कर चुके थे. भ्रष्टाचार को समाप्त करने की पहल|
आखिरकार पीएम मोदी के हाथों से वाराणसी में BHU स्थित ट्रॉमा सेंटर का उद्धाटन हो गया। 197 करोड़ की लागत से बने इस ट्रॉमा सेंटर के मोदी से उद्धाटन के लिए चार बार कार्यक्रम तय हुआ, लेकिन कभी बारिश तो कभी अधूरी तैयारियों की वजह से हर बार उद्धाटन टलता गया। वाराणसी में बना यह ट्रॉमा सेंटर यूपी, बिहार सहित पूर्वांचल के लिए बेशकीमती तोहफा है। आइए जानते हैं 334 बेड और 14 हाइटेक माड्यूलर ऑपरेशन थिएटर वाले ट्रॉमा सेंटर की क्या है खासियत- ट्रॉमा सेंटर में देश-विदेश में मंगवाई गईं कई अत्याटधुनिक मशीनें लगाई गई हैं। इसके अलावा मरीजों के बेहतर इलाज के लिए एक्सपर्ट डॉक्टर तैनात किए गए हैं। ट्रॉमा सेंटर की पूरी बिल्डिंग एयरकंडीशन है। यहां 50 बेड का स्पेशल आईसीयू बनाया गया है। इसके अलावा तीन बेड पर दो नर्स और आईसीयू में एक बेड पर एक नर्स की व्यवस्था की गई है। इसके अलावा यहां कई मोबाइल एंबुलेंस को तैनात किया गया है।
इससे पहले चार बाद ट्रॉमा सेंटर के उद्घाटन के लिए मोदी का कार्यक्रम तैयार किया गया, लेकिन हर बार किसी न किसी वजह से टलता गया। पिछली बार 16 जुलाई को वाराणसी आकर ट्रॉमा सेंटर का उद्घाटन करने वाले थे, लेकिन एक दिन पहले कार्यक्रम स्थल पर करंट लगने से मजदूर की मौत होने के बाद मोदी ने दौरा रद्द कर दिया।
इससे पहले 28 जून 2015 को भारी बारिश के कारण मोदी का उद्घाटन कार्यक्रम कैंसल हो गया था। 25 दिसंबर 2014 को महामना मदन मोहन मालवीय की जयंती पर भी ट्रॉमा सेंटर के उद्घाटन का प्रस्ताव था। मोदी वाराणसी पहुंचे, लेकिन जरूरी तैयारी नहीं होने की वजह से ट्रॉमा सेंटर का उद्घाटन नहीं कर सके। इससे पहले 14 अक्टूबर 2014 को उन्हें इसका उद्घाटन करना था, लेकिन साइक्लोन हुदहुद की वजह से उनका प्रोग्राम कैंसल हो गया था। इस सन्दर्भ में मेरा कहना यही है की आज हर योजना या कार्यक्रम का शुभारम्भ मोदी जी के ही हाथों होना है, चाहे वह सफाई अभियान हो या जन-धन योजना, गरीबों को रिक्शा देना हो या उनका बीमा कराना. बेटी बचाओ अभियान हो या मेक इन इण्डिया स्किल इण्डिया वगैरह वगैरह. चुनावी रैलियों में उनका मुकाबला भला कौन कर सकता है. गैस सब्सिडी छोड़ने का उनका निवेदन भी काबिले तारीफ़ है. 
इधर अमेरिकी सर्वेक्षण एजेंसी प्यू (पीईडब्ल्यू) के सर्वे के मुताबिक, पिछले साल भारत में बीजेपी नीत सरकार के सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता रेटिंग में तेजी से इजाफा हुआ है। प्यू ने छह अप्रैल से 19 मई, 2015 तक भारत में 2452 लोगों के बीच कराए गए अपने सर्वेक्षण के नतीजों में कहा कि मोदी ने अपनी नीतियों और शासन से न केवल देश में भारतीयों का गौरव बढ़ाया है, बल्कि उनकी लोकप्रियता की रेटिंग उछलकर 87 फीसदी हो गई है और परंपरागत कांग्रेसी आधार वाले स्थानों से भी उन्हें समर्थन मिल रहा है। लोकप्रियता के साथ थोड़ा अविश्वास भी कायम: गुजरात में आरक्षण के मुद्दे को लेकर शुरू हुए आंदोलन के चलते पिछले महीने भड़की हिंसा से पहले कराए गए सर्वेक्षण में कहा गया, ‘लेकिन अविश्वास बना हुआ है। शायद इसलिए क्योंकि बीजेपी के शासनकाल में 2015 के पहले पांच महीने में साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं में 2014 की इसी अवधि की तुलना में करीब एक चौथाई का इजाफा हुआ है। 2014 में उस समय कांग्रेस नीत सरकार थी।’ घरेलू मुद्दों में मोदी को सबसे कम स्वीकृति साम्प्रदायिक संबंधों यानी बहुसंख्यक हिंदुओं और अल्पसंख्यक मुस्लिमों, जैनों, सिखों और ईसाइयों आदि के बीच दिन प्रतिदिन के संवाद तथा देश में अनेक जातियों के बीच रिश्तों पर उनके प्रबंधन को लेकर मिली है। प्यू ने एक बयान में कहा कि हालांकि मोदी ने भारत की परंपरागत दलीय राजनीति को आगे बढ़ाया है। प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी को देश के सामने मौजूद अधिकतर चुनौतियों पर बीजेपी के समर्थकों के साथ साथ विपक्षी कांग्रेसी के समर्थकों से भी समर्थन मिल रहा है। इस सर्वेक्षण के अनुसार, मोदी और बीजेपी को ग्रामीण इलाकों में और कांग्रेस के परंपरागत मजबूत गढ़ों में बड़ा समर्थन मिल रहा है। बड़ी संख्या में कांग्रेस समर्थकों ने आतंकवाद तथा भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रधानमंत्री के प्रयासों को सही माना है। इनकी संख्या 56-56 प्रतिशत रही। खुद को कांग्रेस का समर्थक बताने वाले 10 में से करीब छह लोगों ने शौचालयों, बेरोजगारी, गरीबों की मदद और महंगाई से निपटने के मोदी के तरीके को मंजूर किया है। प्यू की रिपोर्ट के मुताबिक, ‘सर्वेक्षण के विषय में केवल सांप्रदायिक तनाव वह विषय रहा, जिस पर कांग्रेस के आधे से भी कम समर्थकों (47 प्रतिशत) ने मोदी के प्रयासों को सही दिशा में माना।’
हम सबकी शुभकामनाएं प्रधान मंत्री के साथ है, ताकि देशवासी खुशहाल हों भारत का नाम देश विदेश में उज्जवल हो. बिहार में भी मोदी जी नीत एन डी ए की सरकार बननेवाली है, ऐसा कुछ चैनेल दावा कर रहे हैं. अब बिहार का काया-कल्प होने से कोई नहीं रोक सकता. झाड़खंड का विकास तो हो ही रहा है.
– जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर

Sunday 13 September 2015

आओ हिंदी दिवस मनाएं !

आओ हिंदी दिवस मनाएं !
प्रात भ्रमण में जो मिल जाए, उसको अपना गीत सुनाएँ, 
सुप्रभात अब बोलें हम सब, गुड मॉर्निंग को बाय बाय, आओ हिंदी दिवस मनाएं!
मातु पिता गुरु के चरणों में, श्रद्धापूर्वक शीश नवायें, आओ हिंदी दिवस मनाएं!
मुन्ने की अम्मा घरवाली, बाहर वाली सभी बहन जी,
संभ्रांता देवी महोदया, माननीया फूफी हो सकती
काकी चाची मौसी फ़ूआ, दादी नानी सासु माँजी
दीदी बहना सरहज साली, दूर कहीं बैठी है आली
कच्चे धागे से बंधे हुए, कानून बीच न कोई आय. आओ हिंदी दिवस मनाएं
इन रिश्तों में है आकर्षण. नमन प्रणाम या अभिनन्दन कर
शुभ स्वागत आभार प्रकट कर, एक दूजे को गले लगायें आओ हिंदी दिवस मनाएं
बाबूजी या स्वसुर पिताजी, काका, फूफा, मौसा, चाचा
मामा मातुल नाना दादा, साला साढ़ू सब घर आजा
आर्य पुत्र या वत्स तात हो, भगिना भांजा भैया भ्राता
अंग्रेजी में अल्प हैं रिश्ते, बने बड़े शब्दों का भाजा
यहाँ बना अंजाना बंधन वहां सभी कानून सिखाये, आओ हिंदी दिवस मनाएं
(हिदी दिवश पर आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं)
जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर तिथि- १४.०९.२०१५

दसवां विश्व हिंदी सम्मेलन



दसवें विश्व हिंदी सम्मलेन की शुरुआत ‘हिंदी का जयघोष गुंजाकर’ कबतक गूंजेगा? पता नहीं, पर कुछ बातें इसमें कही गयी है जो तथ्यात्मक रूप से सत्य है. और भी बातें जोड़ी जा सकती थी. जैसे सोसल साइट्स में हिंदी का उपयोग अब काफी हद तक होने लगा है. हिंदी में ब्लॉग भी काफी लिखे जाने लगे हैं. अपने विचार को अपनी मातृभाषा में व्यक्त करने का बहुत बड़ा सशक्त माध्यम बन गया है.
महेश श्रीवास्तव द्वारा रचित इस गीत पर भी एक नजर –
भाषा संस्कृति प्राण देश के, इनके रहते राष्ट्र रहेगा।
हिन्दी का जय-घोष गुँजाकर, भारत माँ का मान बढ़ेगा।।
हिन्दी का अमृत ओंठों पर, वाणी में हो उसका वंदन।
मन में लेखन में हिन्दी हो, प्रेम भाव हो और समर्पण।।
भारत में जन्मी हर भाषा, जननी का अर्न्तमन पहने।
हिन्दी की बहनें प्यारी सब, भारत माता के हैं गहने।।
हिन्दी भाषा के गौरव से, युवा सभी ऊर्जामय होंगे।
देवनागरी होगी व्यापक, कम्प्यूटर हिन्दीमय होंगे।।
शुरू स्वयं से करें, त्याग दें, हीन ग्रन्थि से भरा मन।
भर दें हिन्दी भाव भक्ति से, पूरे भारत का जन गण मन।
भारत संस्कृति प्राण देश के ….
स्वागत भाषण में शिवराज सिंह चौहान ने हिंदी को गुजरात से जोड़ा पहले महात्मा गांधी और अब मोदी. मतलब साफ़ है! रही-सही कसर सुषमा जी ने पूरी कर दी. उन्होंने भी प्रधान मंत्री का जमकर स्तुति-गान किया. जब प्रधान मंत्री ने माइक सम्हाला तो लगता था माइक को छोड़ेंगे ही नहीं. ‘हवाबाज’ से ‘हवालाबाज’ शब्दों का प्रयोग भी हिंदी के मंच से किया. राजनीतिक भाषणों में नए-नए शब्दों का प्रचलन आम बात है. इन सबसे हिंदी समृद्ध ही होनेवाली है. हिंदी की कमजोरी यही है कि हम संस्कृत के तत्सम शब्दों पर ही निर्भर रहते हैं. न तो नए शब्दों का सृजन करते हैं न ही अन्य भाषाओँ के शब्दों को आत्मसात कर जाते हैं. जबकि अंग्रेजी इनमे माहिर है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश की हर भाषा को अमूल्य बताते हुए कहा कि भारत में भाषाओं का अनमोल खजाना है और अगर इन्हें हिंदी से जोड़ा जाए तो मातृभाषा मजबूत होगी। ‘‘भाषा की भक्ति बहिष्कृत करने वाली नहीं होनी चाहिए बल्कि यह सम्मिलित करने वाली, सबको जोड़ने वाली होनी चाहिए।’’ देश की एकता के लिये हिन्दी सहित देश की भाषाओं की समृद्धि के लिये कभी हिन्दी-तमिल, कभी हिन्दी-बांग्ला, कभी हिन्दी-डोगरी की कार्यशालाएं आयोजित की जानी चाहिये। इससे हिन्दुस्तान की सभी बोलियों और भाषाओं में जो उत्तम है उन्हें हिन्दी को उन्नत बनाने में मदद मिलेगी और ऐसे प्रयास समय समय पर होते रहने चाहिये। भाषाशास्त्रियों का मानना है कि 21वीं सदी के अंत तक विश्व की 6,000 में से 90 प्रतिशत भाषाएं लुप्त हो सकती हैं। ‘‘आने वाले दिनों में डिजिटल दुनिया में अंग्रेजी, चीनी और हिन्दी का दबदबा बढ़ने वाला है।’’ महात्मा गांधी, विनोबा भावे और राजगोपालाचारी आदि के इस प्रयास को अगर आगे बढ़ाया गया होता तो राष्ट्र की एकता के लिये देश की सभी भाषाओं में समन्वय का काम हो चुका होता। उन्होंने कहा कि हिन्दी भाषा का आंदोलन देश के गैर हिन्दी भाषी लोगों ने चलाया। भाषा जड़ नहीं हो सकती, जीवन की तरह भाषा में भी चेतना होती है। उन्होंने कहा कि किसी चीज के लुप्त हो जाने पर उसके मूल्य का पता चलता है। इसलिये हर पीढ़ी का दायित्व है कि वह अपनी भाषा को समृद्ध करे और संजोये। भारत का कद बढ़ने के साथ हिन्दी के प्रति दुनिया में बढ़ते रुझान का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि जिस भी देश में मैं जाता हूं वहां के लोग उनसे ‘सबका साथ, सबका विकास’ का जिक्र करते हैं।
भारत में 32 साल बाद हो रहे विश्व हिन्दी सम्मेलन में लगभग 40 देशों के प्रतिनिधियों ने भागीदारी की। तीन दिवसीय सम्मेलन के उद्घाटन समारोह में मोदी के अलावा विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, पश्चिम बंगाल के राज्यपाल केशरीनाथ त्रिपाठी, गोवा की राज्यपाल मृदुला सिन्हा, केन्द्रीय मंत्रियों में रविशंकर प्रसाद, हर्षवर्धन, वी के सिंह, किरण रिजीजू, और मॉरीशस की शिक्षा मंत्री लीला देवी आदि मंच पर उपस्थित थीं। हिंदी के विद्वान के रूप में श्री अशोक चक्रधर की उपस्थिति मात्र ही नजर आयी.
10वां विश्व हिंदी सम्मेलन हिंदी के सरकारीकरण, साहित्य और भाषा को लेकर सरकार की ‘विभाजनकारी’ नीति के कारण किसी तरह का असर छोड़ने में नाकाम होता नजर आया। लेखकों का मानना है कि यह आयोजन हिंदी के विस्तार से ज्यादा उसके शुद्धीकरण की कवायद है। हिंदी के लेखकों का यह भी कहना है कि इस सरकारी आयोजन से लेखकों को इसलिए दूर रखा गया कि सभी भाषाओं के ज्यादातर लेखक रूढ़िवादी और कट्टरपंथी नहीं हैं और ऐसे लोग उनके लिए अनुकूल नहीं बैठते। मालूम हो कि हिंदी सम्मेलन की पूर्व संध्या पर विदेश राज्य मंत्री वीके सिंह ने लेखकों के शराब पीने को लेकर कथित तौर पर कड़ी टिप्पणी ही नहीं की, बल्कि यह भी कहा कि ऐसे लेखकों को सम्मेलन में नहीं बुलाया गया। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने सम्मेलन के उद्घाटन के अवसर पर साफ कहा कि यह सम्मेलन साहित्य केंद्रित नहीं, भाषा केंद्रित है और प्रधानमंत्री ने इसकी पुष्टि की। विश्व हिंदी सम्मेलन में हिंदी को लेकर किसी तरह की गंभीर चर्चा की उम्मीद उसी वक्त खत्म हो गई जब विचार-विमर्श के विषयों की फेहरिस्त सामने आई थी। सम्मेलन के दौरान जिन विषयों पर अलग-अलग सत्र रखे गए उनमें प्रशासन में हिंदी, गिरिमिटिया देशों में हिंदी, विज्ञान के क्षेत्र में हिंदी, संचार और सूचना प्रौद्योगिकी में हिंदी, बाल साहित्य में हिंदी जैसे विषय शामिल थे। इससे स्पष्ट होता है कि यह केवल सरकार के कामकाज में हिंदी को बढ़ावा देने तक सीमित है। भोपाल में तमाम सत्रों में चर्चा भी इसी दृष्टि से हुई। गुरुवार को एक सत्र के दौरान सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कंप्यूटर और स्मार्ट फोन के उपयोग के मामले में देश के लोगों को आगे बताते हुए कहा कि हमें छोटे कामगारों को स्मार्ट फोन के जरिए रोजगार उपलब्ध कराने होंगे। उन्होंने यह भी बताया कि उनके विभाग ने हिंदी के कौन-कौन से ‘ऐप्स’ तैयार किए हैं। उद्घाटन भाषण में प्रधानमंत्री ने हिंदी में दूसरी भाषाओं के शब्दों को लेने पर जोर दिया। उन्हें स्पष्ट करना चाहिए था कि दूसरी भाषाओं के शब्द क्या बाबू लोग सरकारी कामकाज की हिंदी में इस्तेमाल करेंगे? जहां तक हिंदी साहित्य का सवाल है, प्रधानमंत्री के सलाहकारों को पता होना चाहिए कि हिंदी दूसरी भाषाओं और खास तौर पर बोलियों से लिए गए शब्दों के कारण की समृद्ध हुई है और इनका हिंदी के विकास में पहले ही बड़ा योगदान रहा है। वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पांडेय ने कहा कि ये सब लोग (भाषा की बात करने वाले भाजपा के लोग) न तो भाषा जानते हैं और न साहित्य। इनसे कोई पूछे कि वाल्मीकि, व्यास, भवभूति और कालिदास को अलग कर क्या संस्कृत का कोई अस्तित्व होगा? इसी तरह साहित्य को छोड़ कर हिंदी क्या होगी? उन्होंने कहा कि हिंदी के लिए लड़ने का काम हिंदी के साहित्यकारों ने किया। भारतेंदु, रामचंद्र शुक्ल और महावीर प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी की लड़ाई लड़ी। इसलिए इन्हें हिंदी भाषा से अलग कैसे किया जा सकता है? पांडेय ने कहा कि भाषा का व्यवस्थित और परिष्कृत रूप साहित्य में ही व्यक्त होता है। नेताओं की हिंदी से तो गाय पर निबंध भी नहीं लिखा जा सकता। सवाल है कि एक तरफ भाजपा और राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ संस्कृतनिष्ठ हिंदी की बात करते हैं तो दूसरी ओर अरबी, फारसी, अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं व बोलियों के शब्दों को क्या कामकाज और बोलचाल में खुले मन से स्वीकार करेंगे? विश्व हिंदी सम्मेलन में इसी रवैये के कारण सरकारी से लेकर निजी टीवी चैनलों और राष्ट्रीय अखबारों में सम्मेलन की चर्चा नाममात्र की है। इससे ज्यादा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भोपाल पहुंच कर हिंदी सम्मेलन से पूर्व की गई ‘हवालाबाज’ वाली टिप्पणी हिट रही. वरिष्ठ कथाकार और ‘समयांतर’ के संपादक पंकज बिष्ट का कहना है कि भाषा को बनाने में लेखकों का योगदान टकसाली भाषा बनाने वालों से अलग है। साहित्यकारों ने सांस्कृतिक-सामाजिक जरूरतों के हिसाब से शब्दों (आंचलिक) का इस्तेमाल किया। इस मामले में उन्होंने फणीश्वरनाथ रेणु और शैलेश मटियानी के साहित्य का उल्लेख किया। पश्चिम पंजाब से बंगाल तक हिंदी का विस्तार यों ही नहीं हो गया। प्रधानमंत्री के अपने वक्तव्य में इस बात को बड़े गर्व से कहा था कि हिंदी भाषा एक बहुत बड़ा बाजार बनने वाली है। सरकार को यह भी तय करना होगा कि हिंदी को बाजार बनाना है या उसे समृद्ध भाषा बनाना है। बाजार बनाने से हिंदी वह भाषा कभी नहीं रहेगी जिसकी शुद्धता की वकालत भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस करते हैं। वह विज्ञापनों वाली खिचड़ी भाषा बन कर रह जाएगी। ओम थानवी ने मोदी के भाषण में कुल ५६ अंग्रेजी के शब्दों को ढूंढ निकाला तो जापान के प्रोफ़ेसर टोमियो ने भी मोदी के भाषण को इसलिए पसंद नहीं किया क्योंकि वे अंग्रेजी के शब्दों का धरल्ले से इस्तेमाल कर रहे थे. टोमियों की नजर में भारतीय लोग अंग्रेजी को ज्यादा महत्व देते हैं. कुल मिलाकर यह सम्मलेन सरकारी आयोजन बन कर रह गया. हिंदी के विद्वानों, पत्रकारों को भी इस सम्मलेन से दूर रक्खा गया. इसलिए भी उद्घाटन भाषण के बाद के किसी कार्यक्रम की विशेष चर्चा नहीं हुई. फिर कैसे इसे भारत में आयोजित “विश्व हिंदी का सम्मलेन” कहा जाय?
– जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर.

Saturday 5 September 2015

संघ की समन्वय बैठक में सरकार पास

भारतीय सरकार संविधान के दायरे में रहकर देश और उनके नागरिकों के हित के लिए काम करती है. आम तौर पर सरकार संसद के पार्टी जवाबदेह होती है और संसद के सदस्य जनता अर्थात मतदाता के प्रति जवाबदेह होते हैं. सरकार और संसद सदस्य लोकतान्त्रिक तरीके से चुने गए जन-प्रतिनिधि होते हैं. अगर ये जन-प्रतिनिधि जनता की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे तो जनता उन्हें बदल देती है. यह मौका पांच साल के बाद ही मिलता है. सभी जन-प्रतिनिधि की कोशिश यही होती है या होनी चाहिए कि वे देश-हित और देश के नागरिकों के हित के लिए काम करे.
पिछले दशकों से कई दलों की मिली-जुली सरकारें काम करती रही है. इस बार भाजपा नीत एन. डी. ए. को पूर्ण बहुमत मिला और यह अपने आप में काफी शक्तिशाली है. श्री नरेन्द्र मोदी एन. डी. ए. के मुखिया और प्रधान मंत्री हैं. उन्होंने जनता से काफी सारे वादे किये थे. किये गए वादे के अनुसार वे काम करने का हर-संभव प्रयास कर रहे हैं. पर जनता की आकांक्षाएं प्रबल होती हैं और वह जल्द परिणाम भी चाहती है. गत दिनों सरकार के काम-काज पर अगर सरसरी-तौर पर निगाह दौराई जाय, तो हम पाते हैं कि विदेशों में भारत के प्रति मान-सम्मान बढ़ा है और श्री मोदी ‘वर्ल्ड लीडर’ बन कर उभरे हैं. हरेक देशों में इनकी अच्छी आवभगत हुई है और अनेक देशों के साथ कई समझौते भी हुए हैं. पर विकास की रफ़्तार जो होनी चाहिए थी, वह अभी अपेक्षाकृत नहीं हुई है. जरूरी सामानों के दाम बढे हैं और रोजगार में कोई खास बृद्धि नहीं हुई है. संसद में हंगामा खूब हुआ है और जरूरी बिल पारित नहीं हो सकें. कई महत्वपूर्ण बिल पारित नहीं हो सके. बहुचर्चित भूमि अधिग्रहण बिल को वापस लेना पड़ा है. फलस्वरूप आम आदमी के अलावा उद्योग जगत भी नाराज ही हुआ है. चीन और विश्व की मंदी का प्रभाव हमारे यहाँ भी हुआ है. शेयर मार्किट औंधे मुंह गिरा है और रुपये का भी अवमूल्यन हुआ है. जनता अधीर होकर एक-टक मोदी जी और उनकी सरकार पर नजरें टिकाये हुए है.
भाजपा की जीत के लिए आरएसएस(संघ) ने काफी प्रयास किया था. देश के कोने-कोने में अपने कार्यकर्ताओं को भेजकर माहौल बनाया था. मोदी जी के भाषण से देश आकर्षित हुआ था. उद्योग जगत ने भी मोदी जी के पक्ष में हवा या लहर बनाने के लिए भरपूर प्रयास किया था.  संघ की ईच्छा के अनुसार ही मोदी जी को प्रधान-मंत्री पद के लिए उम्मीदवार घोषित करवाया गया था. सरकार में मंत्री तक बनाने में संघ का अप्रत्यक्ष रूप से नियत्रण होता है. अब संघ जब इतना कुछ करती है तो जाहिर है सरकार से हिशाब भी मांगेगी और वही उसने किया. आर. एस. एस. के समन्वय बैठक में मोदी जी के साथ-साथ उनके काफी मंत्रियों ने अपना-अपना हिशाब दिया और संघ के प्रवक्ता के अनुसार सरकार सही दिशा में आगे बढ़ रही है. कई राज्यों में अपना झंडा गाड़ चुकी भाजपा की परीक्षा बिहार में होनी है. जाहिर है यहाँ भी संघ के सदस्यों का ही काफी योगदान रहेगा. राजनीति के धुरंधर अपनी-अपनी चालें चलेंगे और जनता को अपनी तरफ करने का हर संभव प्रयास करेंगे. बहुत सारे पत्रकार और राजनीतिज्ञ भी अपनी अपनी समीक्षा दे रहे हैं. ऐसे में NDTV के मशहूर पत्रकार रवीश कुमार द्वारा की गयी टिप्पणी को यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ.   
“बहुत दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि अब गिरिराज सिंह, शाहनवाज़ हुसैन, योगी आदित्यनाथ और मुख़्तार अब्बास नक़वी के हाथों कई लोग पाकिस्तान जाने से वंचित हो जाएंगे। इन नेताओं से मुझे बहुत उम्मीद थी कि कभी न कभी गुस्सा होकर शाहनवाज़ भाई या गिरिराज जी मुझे पाकिस्तान ज़रूर भेज देंगे। बिहार से होने के बाद भी इन्होंने मेरा ख़्याल नहीं रखा। अब तो पाकिस्तान और हिन्दुस्तान भाई-भाई होने जा रहे हैं तो इनकी शायद ज़रूरत भी न रहे। संघ के बयान के बाद भारतीय राजनीति के इन पाकिस्तान भेजक नेताओं को पाकिस्तान भेजने की ट्रैवल एजेंसी बंद कर बिहार चुनाव में जी जान से जुट जाना चाहिए।
भारतीय राजनीति में जैसे को तैसा का सबसे बड़ा चैप्टर है पाकिस्तान। पाकिस्तान को सबक सीखाना है, इसे हमारे नेता और उनके कुछ अज्ञानी समर्थक रटते रहते हैं। चुनाव आते ही ज़ोर-ज़ोर से रटने लगते हैं। पाकिस्तान का नाम लेकर कई नेताओं में विदेश-मंत्री की सी क्षमता का विकास होने लगता है। भारतीय राजनीति में पाकिस्तान एक ऐसी समस्या है जिसे बयानों से दो मिनट में सुलझा दिया जाता है। इन दिनों नेताओं ने पाकिस्तान भेजने का प्रयोग शुरू कर दिया है। वहां भेजने के इतने बयान आने लगे कि पाकिस्तान भी घबरा गया होगा। इस घबराहट में वो भी सीमा से इस पार लोगों को धड़ाधड़ भेजने लगा। इन नेताओं ने सिर्फ अपने विरोधियों को पाकिस्तान जाने का पात्र समझा। संघ के बयान से अब बीजेपी के समर्थकों को भी पाकिस्तान जाने में कोई नैतिक संकट नहीं होगा। पाकिस्तान को सबक सीखाने के सबसे बड़े स्कूल से आदेश आया है कि हम सब भाई-बंधु हैं। संघ और सरकार के बीच चली तीन दिनों की सफल समन्वय बैठक के बाद संघ के सह-सर-कार्यवाह दत्तात्रेय हसबोले ने कहा है कि भारत के पड़ोसी देशों के साथ पारिवारिक और सांस्कृतिक संबंध भी हैं। नेपाल, भूटान, श्रीलंका, पाकिस्तान या बांग्लादेश अपने शरीर से ही टूटकर बने हैं, तो स्वाभाविक है यहां रहने वाले लोग अपने ही परिवार के हैं। कभी-कभी संबंधों में, जैसे भाई-भाईयों में भी मतभेद हो जाता है। ऐसा कुछ दशकों में हुए होंगे। लेकिन इन सब को भूलकर हम पड़ोसी देशों के साथ सांस्कृतिक संबंध और अच्छे कैसे हो सकते हैं, इस दृष्टि से भी थोड़ा पड़ोसी देश के बारे में विचार किया। दत्तात्रेय हसबोले ने कहा कि भारत में कौरव और पांडव भी भाई-भाई थे। धर्म संस्थापना के लिए सब करना पड़ता है। लेकिन धर्म संस्थापना के लिए ही तो कौरव-पांडव के बीच युद्ध हुआ था। क्या हसबोले जी ने यह कह दिया कि धर्म को लेकर जो कौरव-पांडवों के बीच हुआ, वैसा कुछ होने वाला है या वे ये कह रहे हैं कि धर्म-युद्ध से पहले की तरह 105 भाई एक हो सकते हैं। इस बयान को सुनते ही मुझे हुर्रियत नेता गिलानी जी की थोड़ी चिन्ता तो हुई। अगर उन पर इस बयान का सकारात्मक असर हो गया तो क्या पता वे फिर से सूटकेस लेकर दिल्ली के चाणक्यपुरी स्थित पाकिस्तान दूतावास आ जाये, उधर से सरताज अज़ीज़ साहब भी आ जाएं। क्या अब ये मुलाकातें भाई-भाई के सिद्धांत के तहत हो सकती हैं। इन्हीं मुलाकातों के चलते तो वो बात न हो सकी जिसका वादा उफा में प्रधानमंत्री कर आए थे। क्या अब उफा की उल्फ़त रंग लाएगी। क्या कुछ नया और पहले से बड़ा करने के लिए कुछ अलग माहौल बनाया जा रहा है।
आखिर आरएसएस को क्यों लग रहा है कि भाई-भाई का झगड़ा था, सिविल कोर्ट वाला, आतंकवाद को लेकर झगड़ा नहीं था, टाडा कोर्ट वाला। क्या संघ अब आतंकवाद की शर्त से निकल कर संस्कृति और संबंधों के दूसरों रास्ते को मौका देना चाहता है। सबक सीखाने वाले चैप्टर का क्या होगा। क्या उसकी तिलांजलि दे दी गई है। वैसे संघ के भाई-भाई वाले बयान से जो भी बातचीत के समर्थक हैं, उन्हें खुश होना चाहिए कि उनके साथ संघ भी आ गया है। वैसे इसी साल जून में मथुरा में संघ प्रमुख मोहन भागवत का एक बयान आया था कि
पूरा उपमहाद्वीप ही हिन्दू-राष्ट्र है। किसी को शक नहीं होना चाहिए कि भारत बांग्लादेश या पाकिस्तान मे जो भी रह रहे हैं वो हिन्दू-राष्ट्र का हिस्सा हैं। अखबारों की रिपोर्ट के अनुसार उन्होंने पाकिस्तान और बांग्लादेश को भी हिन्दू-राष्ट्र कह दिया। उन्होंने कहा कि उनकी नागरिकता अलग हो सकती है मगर राष्ट्रीयता हिन्दू है। क्या संघ ने प्रधानमंत्री की किसी लाइन को स्वीकार किया है।
एक और महत्वपूर्ण बात हुई। दत्तात्रेय हसबोले ने कहा कि अर्थव्यवस्था का माडल पश्चिमी न होकर भारतीय मूल्यों पर बनें। सरकार गांव वालों की कमाई, पढ़ाई और दवाई पर ध्यान दे ताकि उनका शहरों की तरफ पलायन रूके। अगर संघ वाकई ऐसा चाहता है तो उसे सरकार को शाबाशी देने से पहले बताना चाहिए था कि अर्थव्यवस्था का कौन सा फैसला पश्चिमी माडल को नकार कर भारतीय मूल्यों के आधार पर किया गया है। स्मार्ट सिटी के दौर में क्या किसी के पास सचमुच ऐसा फार्मूला है या संघ के पास है तो क्या सरकार वाकई उस पर चलकर पलायन रोक देगी। पलायन बढ़ाने के लिए ही तो स्मार्ट सिटी तैयार किया जा रहा है ताकि भारत और अधिक शहरी हो सके। क्या ये सब कहने सुनने के लिए अच्छी बातें हैं या ‘मेक इन इंडिया’ को इस माडल में फिट कर बहला-फुसला दिया जाएगा। समन्वय बैठक से दोनों का समन्वय कहीं पूरे संघ परिवार को संदेश तो नहीं था कि बिहार चुनाव में चलकर जुट जाइये। सरकार, संघ सब एक हैं। पाकिस्तान हिन्दुस्तान भाई भाई हैं।“
अब तो प्रधान मंत्री जी भी बौद्ध धर्म के शरण में चले गए हैं जो कि हमारे अधिकांश पड़ोसी देश, खासकर चीन और श्रीलंका अपना रहे हैं. बौध-धर्म हिन्दू-धर्म से ज्यादा ब्यापक नजर आने लगा है!   प्रस्तुति – जवाहर लाल सिंह