Friday 22 March 2013

दो भाई! – तीसरी किश्त!

गतांक से आगे)
इस अंक में होली भी है और हुरदंग भी! पर कथा तो सच्ची ही है! होली के सप्ताह में इस कथा का आनंद लें!
खरीफ की फसल को तैयार कर अनाज को सहेजते और ठिकाने लगाते लगाते रब्बी की फसल भी तैयार होने लगती है. मसूर, चना, खेसारी, और मटर आदि के साथ सरसों, राई, तीसी आदि भी पकने लगते हैं, जिन्हें खेतों से काट कर खलिहान में लाया जाता है. इन सबके दानो/फलों को इनके डंटलों से अलग करने से पहले इन सबको पहले ठीक से सजाकर रखा जाता है, ताकि खलिहान के जगह का समुचित उपयोग हो. आम बोल-चाल की भाषा में इनके ढेर को ‘गांज’ कहा जाता है. गांज यानी पकी फसल को डंटल सहित इस तरह गुंथ कर रखना, ताकि ये अंधड़ में उड़ न जाय तथा वर्षा का असर भी इनपर कम से कम हो! फिर समयानुसार इन्हें सुखाकर दानों को अलग किया जाता है. दानों को अलग करने की प्रक्रिया को दौनी कहते हैं. यह दौनी पहले बैलो के द्वारा कराई जाती थी. आजकल थ्रेसर आदि वैज्ञानिक उपकरण आ गए हैं, जिनसे कम समय में ज्यादा से ज्यादा अनाज और उनके डंटल की भूसी को अलग अलग किया जा सकता है!
गाँव के बाहर परन्तु नजदीक में ही ये खलिहान बनाये जाते है, ताकि इनकी देखभाल भी आसानी से की जा सके. तबतक ठंढा भी कम हो जाता है और अधिकत्तर किसान खलिहानों में ही अपना ज्यादा से ज्यादा समय बिताते है … रात में भी वे लोग वही सो लेते हैं. कभी कभी मनोरंजन के लिए फाग-चैता आदि का भी आयोजन कर लिया जाता है, जिनमे सभी लोग तन-मन-धन से अपना-अपना सहयोग देते हैं.
भुवन और चंदर खुद तो नहीं गाते हैं, पर सबके साथ बैठते हैं और सुर में सुर मिलाने की कोशिश करते हैं. बसंत पंचमी के बाद से ही फगुए की शुरुआत मान ली जाती है और बीच बीच में ढोलक झाल के साथ फाग का आयोजन गांवों में होता ही रहता है.

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ऐसे ही एक दिन फाग का आयोजन चल रहा था, सभी लोग खूब आनंद ले रहे थे. बीच बीच में गांजा खैनी, बीड़ी, आदि तो चलना ही चाहिए. अगर संभव हुआ तो भांग भी आम बात है. हालाँकि ये दोनों भाई किसी भी नशा का सेवन नहीं करते, पर किसी को रोक भी तो नहीं सकते है न!
फाग में ज्यादातर पारंपरिक लोक गीत होते हैं जिनमे आराध्य देव की चर्चा तो होती ही है, भगवान शंकर, भगवान राम, कृष्ण आदि की भक्ति से सम्बंधित फाग गाये जाते हैं. जैसे – “गंगा, सुरसरी जाके नाम लिए तरी जाय” !, “बुढवा भोले नाथ, बुढवा भोलेनाथ… बैकट(बैकटपुर-शिव जी का स्थानीय मंदिर जो पटना के बख्तियारपुर में है) में होरी खेले! …” “सरयू तट राम खेले होली, सरयू तट … “ “होली खेले रघुबीरा, अवध में होली खेले रघुबीरा ….” कुछ सौंदर्य रस भी भरा जाता है – जैसे – “नकबेसर कागा ले भागा …. सैंया अभागा न जागा …..
आज कल तो फ़िल्मी गाने भी चलने लगे हैं – जैसे – “रंग बरसे भींगे चुनरवाली रंग बरसे …
लौंग इलायची का बीरा लगाया ….. खाए गोरी का यार …. सजन तरसे रंग बरसे …

बस ‘गोरी’ (गौरी)का नाम लोगों ने कई बार लिया….. गोरी और गौरी के उच्चारण में नाम मात्र का ही अंतर है और जब समूह गान के रूप में गया जा रहा हो तो सुरों में थोडा अंतर भी आ सकता है. कुछ लोगों कनखी के सहारे इशारे भी ‘भुवन’ की तरफ कर डाले … फिर क्या था….. भुवन-चंदर क्या चुपचाप सुनते रहते ??? एक बाल्टी पानी डाल दी, पूरे समुदाय पर. ठंढा तो था ही और लोग ठन्डे तो हुए, पर कुछ लोग गरम भी हो गए. …. मजा किरकिरा हो गया ….
थोड़ी नोक झोंक हुई और मामला रफा दफा हो गया.

हर जगह अच्छे-बुरे लोग होते हैं. बिफन और बुधना आवारा और शोख किशम के नौजवान थे. वैसे और भी ऐसे लोग थे, जो भुवन-चंदर की तरक्की से जलते थे. दूसरे दिन इन लोगों ने आपस में राय मशविरा किया, शाम को ताड़ी पी और उल जुलूल हरकत भी करने लगे. रात को जब सब सो गए तो इन दोनों ने बीड़ी सुलगाई. बीड़ी पी और जलती हुई माचिस की तीली को पुआल पर फेंका, पुआल थोड़ा सुलगा और तब उन लोगों ने उसे उठाकर भुवन के गांज के नीचे रख दिया और भाग खड़े हुए. थोड़ी ही देर में गांज में आग लग गयी और उसने भीषण रूप अख्तियार कर लिया! गर्मी का अहसास होने से भुवन की नींद खुल गयी और उसने चिल्लाना शुरू किया … “आग! आग! आग लग गयी हो…!” आस पास के लोग भी उठे, दौड़े और कुंए से पानी भर-भर कर आग को बुझाने का भरपूर प्रयास किया गया. आग तो बुझ गयी पर भुवन के गांज का काफी हिस्सा जल गया! यह मसूर का गांज था … काफी नुक्सान हुआ. ….गौरी तो देख रोने लगी और आग लगाने वाले को भरपूर गालियाँ भी देने लगी….. कुछ लोगो ने ढाढस बंधाए. …..पर जो आग भुवन के सीने में लगी थी, उसे कौन बुझा सकता था….
गाँव में बहुत सी बातें छिपती नहीं, तुरंत भेद खुल जाता है. कुछ लोगों ने बिफन और बुधना को शाम के समय ताड़ी पीते और बक बक करते सुना था. आग बुझाने के समय भी लगभग सारा गांव इकठ्ठा हो गया था, पर वे दोनों नहीं दिखे थे. उनसे जब पूछा गया तो कहा – “ताड़ी पीकर सो गए थे .. नींद ही नहीं खुली!”
जब पक्का बिस्वास हो गया की इन्ही दोनों की करतूत है, तो भुवन और चंदर ने मिलकर उन दोनों को खूब पीटा. वे लोग कान पकड़ कसम खाने लगे – “अब ऐसा नहीं करेंगे, भैया!” ….फिर उन्हें छोड़ दिया गया!
फिर इन्हें लोगों ने आम घटना मान कर भुला दिया. सभी अपने अपने काम में ब्यस्त हो गए.

क्रमश: )

Saturday 16 March 2013

दो भाई ! – दूसरी किश्त!

पिछले भाग से आगे ) इसी तरह दिन गुजरते गए और फसल पकने का समय हो आया. इस साल अच्छी फसल हुई थी. महाजन को उसका हिस्सा देने के बाद भी भुवन के घर में काफी अनाज बच गए थे. खाने भर अनाज घर में रखकर बाकी अनाज उसने ब्यापारी को बिक्री कर दिए. जब पैसे हाथ में आते हैं तो आवश्यकता भी महसूस होती है. अभी तक वे दोनों भाई ठंढे के दिन में भी चादर और गुदरी(लेवा – पुराने कपड़ो को तह लगा सी देने से मोटा ‘लेवा’ बन जाता है) में गुजारा कर लेते थे. पर इस साल उन दोनों ने दो रजाईयां बनवाई. कुछ नए कपड़े भी बनवाए! ..एक और जरूरत की चीज महसूस हो रही थी, वह थी, खेतों की सिंचाई के लिए ‘पम्प सेट’ की. अभी तक पारंपरिक तरीके से जैसे रहट, लाठा, मोट (चमरे का बड़ा सा थैला नुमा साधन जिससे एक बार में काफी पानी कुंए से निकाला जा सकता है), आदि से ही सिंचाई करता था. यह सब साधन सार्वजनिक होने के कारण उन लोगों को अगर दिन में मौका नहीं मिलता तो रात में ही अपने खेतों की सिंचाई करते! अब चूंकि कुछ पैसे हाथ में हैं, कुछ महाजन से मांगकर, एक तीन हॉर्स पॉवर का पम्पसेट, जो किरासन तेल या डीजल से चलता था खरीद लिया. दूसरे साल उसने ज्यादा जमीन में खेती की,इस तरह और ज्यादा पैदावार भी हुई. गाँव के अन्य किसान जिनकी अपनी जमीन थी, वे भी उतना पैदावार नहीं कर पाते थे, जितना इन दो भाइयों की मिहनत पर भगवान् की कृपा होती! इसी तरह इन दोनों भाइयों की मिहनत रंग लाती गयी और एक समय ऐसा आया, जब ये लोग दूसरों के खेती की ही पैदावार से अपने लिए कुछ जमीन भी खरीदना शुरू कर दिया. ****** कुछ महीनों बाद चंदर को एक लड़का हुआ और भुवन को मात्र एक ही लडकी थी! गाँव के लोग ताना कसते – “क्या हो भुवन! इतना काम किसके लिए कर रहे हो? बेटा तो है नहीं, कौन वारिश बनेगा तुम्हारी संपत्ति का?” “मेरा बेटा नहीं है, तो का हुआ चन्दर का तो है, वही मेरा बेटा है, वही मेरे मुख में आग देगा.” भुवन का यही जवाब होता. लोग आश्चर्यचकित होते इन दोनों भाइयों के परस्पर प्रेम पर! गौरी गोरी तो थी ही सुन्दर भी थी. खेतों में काम करने के बावजूद भी उसके रंग में और लालिमा बढ़ जाती थी, जब वह अपने फसल को लहलहाती देखती! कोशिला भी उसे दीदी, दीदी कहते नहीं थकती! ******* चंदर का लड़का प्रदीप स्कूल जाने लगा था. वे दोनों भाई उसे इंजीनियर बनाना चाहते थे! ………खैर ईश्वर की महिमा कुछ ऐसी हुई कि प्रदीप इंजिनियर बनने की स्थिति में पहुँच गया था. इधर गाँव के सेठ (सबसे बड़े खेतिहर) जी, जिनकी तीन बेटियां ही थी, बृद्धावस्था की तरफ बढ़ रहे थे. उन्होंने अपनी सारी सम्पत्ति(खेत) अपने तीनो बेटियों को बराबर बराबर हिस्से में बाँट दिया. तीनो दामाद सर्विस करते थे और उनकी अपनी भी खेती-बारी थी. सो यहाँ के जमीन को उनलोगों ने धीरे धीरे बेचना शुरू कर दिया और खरीददार यही दोनों भाई बन गए. …….इस तरह कुछ सालों बाद भुवन और चंदर गाँव के सबसे बड़े आदमी बन गए. इनका मिट्टी का मकान पक्के मकान में बदल गया. गाँव का सबसे बड़ा खलिहान और फसल का ढेर इन्ही लोगो का होता. इनके पास कृषि के सभी आधुनिक मशीन थे और अब वे किसी से कम नहीं थे. फिर भी उन्होंने कभी भी मिहनत से जी न चुराया न ही किसी के साथ बेईमानी की! पर अपने हक़ के लिए या किसी के वाजिब हक़ के लिए ये कभी भी पीछे हटने वाले न थे! एक रात एक चोर उनके घर में घुसा और कीमती सामान चुराकर भागने लगा. तभी इन दोनों की नींद खुल गयी … वे चोरों का पीछा करने लगे…. चोरों ने गोली भी चलायी…. पर ये कहाँ डरने वाले थे ….अंत में चोरों ने सारा सामान फेंक, नदी में कूद अपनी जान बचाई! गाँव के बाकी लोग भी पीछे पीछे थे और इनके बहादुरी की प्रशंशा करने लगे. इनकी मिहनत की कमाई चोर भी न ले जा सके! ********** एक दिन जाड़े के समय लोग अलाव के पास बैठे अपने शरीर को गर्म कर रहे थे और आपस में कुछ बातें भी कर रहे थे. हरखू – “हमलोग को इतना ठंढा लग रहा है, पर भुवनवा को देखे हैं?… एगो हाफ कुरता पहने खेतों को पानी पटा रहा है!” महेन्दर- “गजब जीवट का आदमी है, एगो बेटी है, उसी के लिए इतना मर रहा है!” धनपत- “अरे वो तो अपने भतीजे को ही अपना बेटा माने हुए है. कहता है-यही मेरा बेटा है!” हरखू- “कौन जानता है ऊ बेटी भी उसका है कि नहीं, सब दिन तो हीरा चचा के साथ दलाने पर सोता है!” बाकी लोगों के हंसने की बारी थी! “और देखे हैं न, हीरा चचा रजाई ओढ़ते हैं और ई वहीं पर एगो चादर (दोहर) ओढ़े हुए पुआल में घुसा रहता है! “हाँ भाई, लगता है, ठंढा भी उससे डरता है!” “पैसा का गर्मी है न! ठंढा कैसे लगेगा!” “बुरबक, जब पैसा नहीं था, तब भी तो वह वैसे ही सोता था.” इन बातों की चर्चा हो ही रही थी कि चंदर भी अलाव के पास आ धमका और अपने भींगे हाथ को सुखाने की कोशिश करने लगा! अंतिम एक दो वाक्य से उसे मतलब निकालने में देर न लगी .. “का बोल रहा रे घोंचू, एही आग में झोंक देंगे अगर आगे एक बात भी बोला तो… “जब पैसा नहीं था, तो मांगने गए थे तुम्हारे दरवाजे पर!… “हम जो तकलीफ झेले हैं, तुम्ही को पता है?… सभी लोग अपनी अपनी नजरें बचाने लगे हरखू ने ही बात को सम्हालने की कोशिश की- “नहीं भाई, चंदर! हम तो तुम्हारे भाई की तारीफ ही कर रहे थे…इतना ठंढा में भी बेचारा पानी पटा रहा है …लगता है तुम भी वहीं से आ रहे हो!” चंदर- “हाँ, भैया के कामों में हाथ बंटा रहा था …अब वे भी आएंगे, ही थोड़ा और लकड़ी डालिए. वे भी थोड़ा गरम हो लेंगे … ठंढा तो हइये है, लेकिन क्या करेंगे. अभी पटा लेते हैं. तो कल शुबह मसूरी(मसूर) काटने भी तो जाना है! मसूर भी पक के तैयार है, नहीं काटेंगे तो खेते में रह जाएगा!” थोड़ी ही देर में भुवन भी वहां आ गया और अपना हाथ सेंकते हुए कहने लगा – “चंदर, मुसहरी(मजदूरों का टोला) में गया था? चार पांच आदमी होने से जल्दी जल्दी मसुरी काट कर ले आयेंगे.” “हाँ भैया, बोल दिए हैं” अलाव अब बुझने पर थी और सभी लोग धीरे धीरे अपने घरों की तरफ खिसक लिए! क्रमश:)

Friday 15 March 2013

दो भाई ! - भाग -१


दो भाई - राम लक्ष्मण!
दो भाई - कृष्ण बलराम!
दो भाई - पांडु और धृतराष्ट्र !
दो भाई - दुर्योधन दुशासन!
दो भाई - रावण और विभीषण!
दो भाई - भारत और पकिस्तान!
दो भाई - हिन्दी चीनी भाई भाई !
ऊपर के सभी उदाहरण जग जाहिर है ..पर
दो भाई - भुवन और चंदर ....
मैं इन्ही दोनों के बारे में लिखने वाला हूँ.
ये दोनों भाई है- मिहनती और इमानदार !
पांच कट्ठे की एक जमीन का टुकड़ा इनकी पुस्तैनी थी. वह भी गिरवी रखी हुई थी, एक बड़े किसान के पास. पर दोनों भाई उसी जमीन को बटाई पर लेकर उनमे खेती करता और जो भी उपज होती, आधा अपने पास रखकर आधा उस बड़े किसान को दे देता, जिसके पास वह जमीन गिरवी रखा हुआ था... बड़ा भाई भुवन को पढ़ने में मन नहीं लगता था, पर छोटे चंदर को पढ़ने की इच्छा होती थी. भुवन ने उसे स्कूल जाने से न रोका और खुद ही खेतों में मिहनत करने लगा. उसकी इमानदारी को देख बड़े किसान ने कुछ और जमीन उसे बटाई पर दे दी. भुवन बहुत खुश हुआ और वह और ज्यादा लगन से मिहनत करने लगा! चंदर भी स्कूल से आने के बाद अपने बड़े भाई के साथ खेतों में काम करता और इसी तरह रोटी का जुगाड़ होने लगा. सबसे बड़ी बात इन दो भाइयों में यही थी की यह किसी से भी मुफ्त में उधार न लेता. मिहनत कर, बदले में अपने हक़ का मजदूरी अवश्य लेता.
कुछ दिनों बाद भुवन की शादी हुई और एक बच्ची का भी जन्म हो गया. फिर तो और जमीन चाहिए थी, खेती के लिए. उनकी इमानदारी को देख गाँव के अन्य बड़े किसान भी अपना खेत उसे ही बटाई पर देने लगे और धीरे धीरे भुवन और चंदर के पास अच्छी जमीन हो गयी.... और कहते हैं न कि मिहनत करने वाले को भगवान भी मदद करते हैं. उनकी उपज अगल बगल के खेतों से भी अच्छी होने लगी. चंदर किसी तरह हाई स्कूल तक गया और उसके बाद उसने पढाई छोड़ दी. भाई के साथ खेतों में मिहनत करने लगा.
भुवन की बच्ची जैसे ही थोड़ी बड़ी हुई, उसकी पत्नी गौरी भी घर के पास वाले खेतों में थोड़ी बहुत मिहनत करने लगी और घर में आए अनाजों को साफ़ कर सम्हालकर रखने लगी. अब इन दो भाइयों के पास खाने से ज्यादा अनाज होने लगे, जिसे वह बिक्री कर कुछ पैसे बचाने लगा.
समयानुसार चंदर की भी शादी हुई. अब चंदर की पत्नी(कोशिला) घर का काम करती और और गौरी खेतों में ज्यादा समय बिताती!
जैसे दोनों भाई वैसे ही दोनों की पत्नियाँ सगी बहनों की तरह रहती एक दुसरे का ख्याल रखती! खाना दोनों  भाई और दोनों गोतनी(जेठानी और देवरानी) एक साथ ही खाते... दोनों का प्रेम देख अगल बगल के लोगों को ईर्ष्या होती!
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कोशिला कुछ दिनों के लिए मायके गयी. यह तीन भाइयों की एक बहन थी, इसलिए माँ बाप के साथ भाइयों और भाभियों का भी प्यार मिलता था! लगभग तीन महीना बाद पुन: अपने पीहर लौट आई अपने पति चंदर के साथ.
गाँव में एक प्रथा हैकिसी एक घर में चूल्हा जला और धुंवा दिखा तो दूसरी गृहणियां गोइठा(उपले) लेकर चल पड़ेगी, धुंवा वाले घर की ओर, और वहीं से अपना गोइठा सुलगाकर अपने घर का चूल्हा जलायेगी. इसी बहाने भेट मुलाकात और कुछ इधर उधर की बातें हो जाती हैं.
'छुटकी' है तो छोटी, पर हर घर का खबर रखती है. आग लेने के बहाने आग लगाने से भी बाज नहीं आती. " भौजी आपकी साड़ी बड़ी अच्छी है, क्या माँ ने दिया है?" चुटकी ने कोशिला भाभी से पूछा.
"पैसे तो माँ के ही लगे हैं पर यह पसंद है मेरी भाभी की. मेरे भैया की घरवाली की... उनकी पसंद पर तो भैया भी फ़िदा रहते हैं." - कोशिला ने भोलेपन से उत्तर दिया!
:"हाँ भौजी! एक दम सही बात बोले हैं!  भौजी-ननद और भौजी-देवर का रिश्ता ही कुछ ऐसा है! देखिये न आपकी जेठानी भी अपने देवर यानी चंदर भैया का कितना ख्याल रखती हैं ..आप नहीं थी तो चन्दर भैया तो गौरी भौजी के साथ ही खाना खाते थे, एक ही थाली में."
"हाँ ! चलो, कोई तो ख्याल रखता था उनका, मेरी अनुपस्थिति में!"
"लेकिन एगो बात औरो है भौजी, हमको तो नहीं मालूम लेकिन पूरा मोहल्ला में हल्ला है कि...." इतना कहते हुए छुटकी चुप होकर जाने को तैयार हो जाती है!
कोशिला छुटकी को रोककर पूछती है - "क्या हल्ला है छुटकी जरा हमको तो बताओ!"
"न ही भौजी कुछ नहीं! हमको कुछ नहीं मालूम! ऊ इतवारी चाची है न, वही एक दिन बुधिया को बतला रही थी कि चंदर का नया शादी हुआ है फिर भी अपनी पत्नी को नैहर में छोड़े हुए है! तभी बुधिया ने कहा था कि भौजी से काम चल ही जाता है तो अपनी औरत का, का जरूरत है! बस इतने हम सुने हैं बाकी उन्ही लोगों से पूछ लीजियेगा." ...बस आग की एक चिंगारी छोड़कर छुटकी अपने घर को चली गयी. इधर कोशिला मन ही मन सोचने लगी और रात का इंतज़ार करने लगी... तभी देवर भाभी हंसते हुए घर में घूंसे. कोशिला का शक और पक्का हो गया, पर चुपचाप उनलोगों को देखने लगी! फिर वे दोनों बाल्टी से पानी लेकर पैर हाथ धोने लगे. गौरी पानी डालकर चन्दर के पैर को रगड़ कर धोने लगी. तभी कोशिला वहां आ गयी और अपने पति का पैर अपने हाथों से धोने लगी. देवर भाभी दोनों को कोई फर्क न पड़ा. उलटे गौरी कोशिला का बोल दी- "बढ़िया से धो दो रात में तेल भी लगा देना, थक गए हैं बेचारे!"  छुटकी की बातों का असर  और जेठानी की चुहल कोशिला को अन्दर-अन्दर सुई की तरह चुभ रहे थे. रात में फिर क्या हुआकिसी को बताने की जरूरत नहीं है, पर कांटा चुभ गया था. शुबह सभी अपनी अपनी दिनचर्या में लग गए, पर नाश्ते के समय तक गुस्सा आखिर फूट ही पड़ा.
चंदर को सब्जी में नमक ज्यादा लगा तो कह दिया - "नमक डालते समय क्या याद नहीं था कि कितना नमक डाली है."
भुवन बेचारा सीधा-सादा चुप-चाप खाए जा रहा था. वैसे भी जेठ, देवरानी को ज्यादा कुछ नहीं बोलता, यह परंपरा से चली आ रही है!
कोशिला से रहा नहीं गया -" इतना दिन तक तो मीठा-मीठा खा रहे थे, अब तो नमक ज्यादा लगेगा ही!"
अब गौरी के भी कान खड़े हो चुके थे और वह भी कोशिला के ताने को समझती हुई उसे फटकारते हुए बोली - "ऐ कोशिला, तू तो अब आई है. बचपन से चंदर को हम ही खिला रहे हैं. कभी कभी नमक कम-ज्यादा हो जाता है, मान लेने में कोई बुराई है क्या? थोड़ा दही दे दो, देवर जी को, नमक ज्यादा नहीं लगेगा!"
मन में अगर कुछ चल रहा होता है, तो अच्छी बात भी बुरी लगती है.  कोशिला कहने लगी - "बात तो ठीके कह रही हैं दीदी, आप ही तो पाल पोस के बड़ा भी किये हैं, फिर हमको लाने की जरूरत ही कहाँ थी".
अब इसके बाद कुछ ज्यादा कहने की जरूरत नहीं है. जेठानी देवरानी के बाद, दोनों भाइयों में भी तू-तू' मै-मै होने लगी ... आवाज घर से बाहर निकली तो अगल बगल के लोग भी अपने घरों से बाहर निकल आये और कुछ लोग शांत करने में तो कुछ लोग मजा लेने में लगे रहे! छुटकी और बुधिया को तो खूबे मजा आ रहा था!
उन्ही लोगों में जगधात्री चाची भी थी, जो सबको समझा बुझाकर शांत की और उस दिन का युद्ध समाप्त हो गया!
दिन का सूरज ऊपर तक आगया था, सो दोनों भाई हल बैलों के साथ खेत में पहुँच गए. काम के दौरान दोनों भाइयों के बीच का मैल जाता रहा और वे लोग भूल ही गए कि सवेरे कुछ हुआ था.
क्रमश:)

Tuesday 5 March 2013

….. अयिले मास फगुनवा न!


गाँव की गोरी, जिसका पति परदेश में है, वह फागुन के महीने में कैसे तड़पती है, उसी का चित्रण इस लोकगीत में किया गया है!
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घड़ी घड़ी सिहरे मोर बदनवा, अयिले मास फगुनवा न!
भोरे भोरे कूके कोयल, कुहुक करे जियरा को घायल.
पी पी करके पपीहा पुकारे, पिया परदेशी जल्दी आरे!
कस के धरिह मोरा बदनवा, अयिले मास फगुनवा न!

सरसों के खेतवा में गईलीं, शरम से हम भी पियारा गईलीं
तीसी के फल मोती लागे, साग चना के सुघर लागे.
आम के मंजर भरल बगनवा, अयिले मास फगुनवा न!

ननदी हमका तान मारे, सासु जी नजरों से तारे.
टोला पड़ोस से नजर बचा के, देवरा भी हमारा पे ताके.
अब न सोहे कोई गहनवा, अयिले मास फगुनवा न!

चिट्ठी पतरी न तू भेजलअ, फोनवा के तू बंद कर देलअ.
पनघट पर सखिया बतिआये, ओकर पिया के सनेसा आये.
तू न भेजलअ एको सनेसवा, अयिले मास फगुनवा न!

घड़ी घड़ी सिहरे मोर बदनवा, अयिले मास फगुनवा न!

Saturday 2 March 2013

आस्था का आधार!

आस्था का आधार
आस्था ज्ञान के आधार के बिना किसी भी परिघटना के सत्य मानने का विश्वास है। अलौकिक शक्तियों- ईश्वर, देवदूत, असुर आदि- में अंधविश्वास प्रायः सभी धर्मों का अंग होता है। इस अर्थ में देखा जाय तो आस्था और अंधविश्वास के बीच कोई अंतर नहीं है।आस्था शब्द को अगर थोड़ा तोड़ा मरोड़ा जाय तो आश + था यानी पहले आशा थी, अब नहीं है!
अब क्यों नहीं है? क्योंकि अब मन चाहा नहीं होता तो क्या पहले होता था? जरूर होता होगा यह हमें अपने धर्म शास्त्रों से ज्ञात है!
मैं किसी एक धर्म की बात नहीं कर रहा हूँ, लगभग सभी धर्मों में यही बताया गया है कि ईश्वर हमारे सारे अपराध, पाप, माफ कर देता है अगर उसकी शरण में चला जाय तो.
अनेक धार्मिक आयोजन विश्व में कही पर भी होते हैं सभी या अधिकांश लोग भाग लेते हैं, तन मन और धन से यथा संभव!
लगभग सभी आयोजनों में कुछ न कुछ अघट घटनाएँ घट जाती हैं, जिनसे जान-माल की काफी क्षति होती है. एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाकर हम शांत भी हो जाते है, फिर संसार जैसे चलता है चलता ही जाता है. हम सब भूलकर नए दिन की शुरुआत भी कर लेते हैं. यह अंतहीन कभी न रुकनेवाला समय चक्र है जो चलता ही जाता है! कभी रुकने का नाम नहीं लेता!
महीनों तक चलनेवाला कुम्भ मेला लगभग समाप्त हो चला है, कुछ लोग शिवरात्रि तक मान रहे है और सभी स्तर के लोग उसी आस्था में डुबकी लगाकर अपने आपको कृतार्थ समझते हैं.
साधु-सन्यासी, नेता-राजनेता, अभिनेता-सिलेब्रिटी, कर्मचारी, ब्यापारी, कार्यरत-सेवामुक्त सभी एक ही आस्था रूपी डोर से बंधे/खिचे चले आते हैं. जो सकुशल लौट गए वे अपने आपको धन्य समझते हैं जो नहीं लौट सके, उनकी आत्मा धन्य हो जाती है! आखिर अंत में सबको तो वहीं पर जाना है, अगर धाम पर मृत्यु हुई तो क्या कहने! इन हादसों में अक्सर महिलाएं, बच्चे, और अशक्त लोग ही शिकार होते हैं, या शिकार होते हैं आम लोग शायद ही कोई ऐसा हादसा हुआ होगा, जिसमे कोई वी आई पी शिकार हुआ होगा! बशर्ते कि वह पूर्वनियोजित न हो! कल्पवास करनेवाले कहते हैं – यहाँ अजीब शांति महसूस होती है! जो जीवन भर नहीं मिला यहाँ पा लेते हैं! अलौकिक सुख! मुझे नहीं पता उन्होंने अपने द्वारा कमाए गए पैसों से ही यह सुख प्राप्त किया है, या दान के भरोसे! पर बहुत से भिखारियों का भी भला इन आयोजनों से हो जाता है, जो सरकारी कार्यक्रमों के जरिये लाभ लेने से वंचित रह जाते हैं.
केवल कुम्भ की ही बात क्यों करें मक्का में भी भगदड़ हुई है और अनेक लोग मारे गए हैं.
अब आते हैं इसके अलावा अन्य आयोजनों पर – आजकल धार्मिक समारोह सभी शहरों, नगरों, चौक चौराहे पर, बड़े बड़े पंडालों से लेकर, बड़े बड़े प्रेक्षा-गृहों में भी होने लगे हैं. सभी अधर्म पर धर्म की जीत, असत्य पर सत्य की जीत, अंधकार पर प्रकाश की जीत बतलाते हैं. यही एक ऐसा पेशा है, उद्योग है जिसमे कभी कोई नुक्सान नहीं होता! यहाँ मंच से किसी को भी गाली दी जा सकती है. उस गाली को प्रमुखता से दिखलाया भी जायेगा और छापा भी जायेगा. इसी बहाने आपको न जानने वाला भी जान जायेगा! सब कुछ होता है धर्म के नाम पर! नेता भी इन आयोजनों में बढचढ कर भाग लेते हैं, लाभ भी कमाते हैं.
कोई भी पर्व त्यौहार हो, अचानक फलों या पूजन सामग्रियों के दाम बढ़ जायेंगे. इसमे लाभ कमाने वाले तो तत्काल फल प्राप्त कर लेते ही हैं. “मज्जन फल पेखिय तत्काला, काक होंही पिक बकऊ मराला!”
प्रश्न यह है कि हम सभी इतने धर्मरत हैं, आस्थावान हैं फिर भी पाप क्यों नहीं रुकते? अधर्म का नाश क्यों नहीं होता?
एक और बात मन में उठती है, कुम्भ मेला महीनो तक चला या चल रहा है …इसमे कोई भी भयंकर हादसा न हुआ (छिट-पुट घटनाओं को छोड़कर). सोचिये अगर हैदराबाद का बम बिष्फोट कुम्भ नगरी में हुआ होता तो? …. यह भी एक चमत्कार ही कहा जायेगा, जहाँ नित्य करोड़ों लोग गंगा स्नान कर, मन के पाप को धोकर (कुछ समय के लिए ही सही) सही सलामत अपने घर वापस आ गये! ‘वे’ वहां का वृतांत सुनाते नहीं थकते हैं! ….लेटे हुए हनुमान जी का दर्शन! सरस्वतीकूप, शिव कुटी, भारद्वाज आश्रम, मनकामेश्वर मंदिर, शंकर विमान मंडपम, संगम स्थल आदि आदि दर्शनीय स्थल भी हैं जो धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व रखते हैं.
आलेख को ज्यादा लम्बा न करते हुए मैं सिर्फ यही कहना चाहता हूँ कि आस्था का आधार है! आप इसे जिस रूप में लें! सूर्य भगवान् पर्तिदिन उदित होते हैं और विश्व को प्रकाशित करते हैं. महान उर्जा का स्रोत जिनके उदित और अस्त होने का समय नियत है और उससे जरा भी इधर उधर नहीं होते! गंगा, गोदावरी, यमुना …आदि नदियाँ जहाँ से बहती है जीवन वहीं से शुरू होता है! पृथ्वी हमारी धारक ही नहीं पालक, पोषक भी है! समुद्र को रत्नाकर भी कहा जाता है. समुद्र मंथन से ही तो अमृत और विषदोनों निकले थे! तात्पर्य यह कि प्रकृति के जितने भी स्वरुप हैं, सभी हमारे लिए ही तो है हम माने तो आस्था नहीं तो प्रकृति का स्वरुप! आप जैसे चाहे उपयोग करें! हाँ इतना अवश्य हो रहा है कि कुछ तथाकथित धर्माधिकारी हमारी आस्था का दोहन करते हैं और हम भी अंध विश्वासी बन उनके चंगुल में फंस जाते हैं. हमारे धर्मग्रंथों में भी बताया गया है – अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हुए अगर ईश्वर को याद भर रखा जाय या प्राणी मात्र से प्रेम किया जाय तो वही परमार्थ का मार्ग है! “प्रयत्नहीन प्रार्थना, प्रार्थना हो ही नहीं सकती”- विनोवा भावे